SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंगलम् बीजांकुर न्याय के समान श्रुत ज्ञान की परम्परा और आचार्य परम्परा एक दूसरे के पूरक हैं । आचरंति यस्माद् व्रतानीत्याचार्यः ||३|| यस्मात् सम्यग्ज्ञानादि गुणाधारा हृदय व्रतानि स्वर्गापवर्ग सुखामृत वीजानिभव्याहितार्थमाचरंति स आचार्य: । (त. वा. ९ / २४) जिनसे व्रतों को धारण कर उनका आचरण किया जाता है, वे आचार्य हैं। जिन सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणों के आधारभूत महापुरुषों से भव्य जीव स्वर्ग मोक्ष रूप अमृत के बीजभूत व्रतों को ग्रहण कर अपने हित के लिए आचरण करते हैं, व्रतों का पालन करते हैं व जो दीक्षा देते हैं वे आचार्य कहलाते हैं । बीसवीं सदी में सर्वप्रथम आचार्य परम्परा के प्रणेता प. पू. मुनि कुंजर आचार्य परमेष्ठी आदिसागर अंकलीकर का नाम लिया जाता है । उन्होंने अपनी आराधना से आराधित आत्मा उद्भूत श्रुत ज्ञान को जिनधर्म रहस्य (संस्कृत) को मगशिर शुक्ला २ वि. सं. १९९८, उद्बोधन (कन्नड़) फाल्गुन शुक्ला ११ वि. सं. २००० सन् १९४३, प्रायश्चित्त विधान (प्राकृत) को भाद्रपद शुक्ला ५ वि. सं. १९७२ सन् १९९५, शिवपथ (संस्कृत) को माघ शुक्ला १४ वि. सं. २०००, अंतिम दिव्य देशना (कन्नड़) को फाल्गुन कृष्णा १३ वि. सं. २०००, दिव्य देशना (कन्नड़) को मगशिर शुक्ला २ वि. सं. १९९८ को प्रतिपादित करके अपने ज्ञान से जन-जन में प्रसारित किया है । इसी परम्परा को आचार्य महावीर कीर्ति ने फाल्गुन शुक्ला ग्यारस ११ सत्रह (१७ मार्च सन् १९४३) को ऊदगाँव में प. पू. मुनि कुंजर आचार्य परमेष्ठी आदिसागर अंकलीकर से मुनि दीक्षा लेकर और इसी वर्ष चातुर्मास में गुरु का आचार्य पद प्राप्त कर प्रबोधाष्टक (स्वोपज्ञ टीका) संस्कृत को फाल्गुन शुक्ला ११ वि. सं. २००१ सन् १९४४, शिवपथ (टीका) को मगशिर कृष्णा १० वि. सं. २००४ सन् १९४९, वचनामृत को मगशिर कृष्णा १० सं. २०००, जिनधर्म रहस्य (हिन्दी टीका) को फाल्गुन शुक्ला १३ वि. सं. २०१०, चतुर्विंशति स्तोत्र (संस्कृत) गगशिर शुक्ला ११ वि. सं. २०१८ इत्यादि ग्रन्थों को लिखा है । इस आचार्य परम्परा के साथ श्रुत परम्परा को आगे बढ़ाया । इसी कड़ी से जुड़े हुए निमित्त ज्ञान शिरोमणि आचार्य विमलसागर ने 'आचार्य आदि सागर अंकलीकर की परम्परा और शांतिसागर दक्षिण की परम्परा III Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002546
Book TitleNidi Sangaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar
PublisherJain Sahitya Vikray Kendra Udaipur
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy