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वस्तुत: (तेसिं गिह) उनका घर (जाल व्व) जाल के समान है, [वे] (संसारद्धे) संसाररूपी सागर में (णिमजदे) डूबते हैं ।
भावार्थ- जो गृहस्थ निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनियों को तथा चतुर्विध संघ को औषधि, शास्त्र अभय और आहार दान अथवा यथायोग्य दान नहीं देते, उनका घर जाल के समान है । ऐसे लोग मरण कर संसाररूपी समुद्र में डूबते हैं । जिस प्रकार जाल में फँसा हुआ पक्षी अपना हित नहीं कर पाता अपितु तड़प-तड़प कर संक्लेश भावों से मरकर संसार में भटकता है, उसी प्रकार लोभी गृहस्थ की दशा होती है । कोह-माणग्गहं जुत्तो, माया-लोह-विडंबिदो । स-हिदं णेव जाणादि, सुधम्मं जिण भासिदं ॥६०॥
अन्वयार्थ- (कोह-माणग्गह जुत्तो) क्रोध-मान ग्रहों से युक्त (माया लोह विडंबिदो) माया-लोभ से विडंबित [जीव] (जिण भासिदं सुधम्म) जिन-भाषित सुधर्म को [और] (स-हिदं) स्वहित को (णेव) नहीं (जाणादि) जानता है ।
भावार्थ- क्रोधकषाय व मानकषाय रूपी खोटे-ग्रहों से ग्रसित तथा मायाकषाय व लोभकषाय (तृष्णा) रूप भाव से विडंबना को प्राप्त जीव जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गये जैनतत्त्व को अथवा श्रेष्ठतम जैनधर्म को तथा अपनी आत्मा के हित को नहीं जानते हैं । जो अपनी आत्मा को ही नहीं जानते हैं, वे अपना हित कैसे कर सकते हैं अर्थात् कैसे भी नहीं कर सकते । जिन जीवों को अपनी आत्मा का हित करना है, उन्हें चाहिए कि वे जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सुधर्म-सुतत्त्व को अपनाकर अपना हित-अहित जानें; पश्चात् हितरूप कार्यों में प्रवृत्तिकर आत्मा का कल्याण करें ।
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