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अन्वयार्थ- (दुरप्पणा) दुरात्मा (णडस्सेव) नट के समान (बहुलो अधीएण) बहुत पढ़ने से (किं) क्या ? (तेणाधीदं) उसके द्वारा पढ़ा गया (सुदं) श्रुतज्ञान (सेट्ठ) श्रेष्ठ है (जो) जो (किरिया वि कुव्वदि) क्रिया भी करता है । ____ भावार्थ-दुरात्मा अर्थात् मूर्खनट के समानबहुत पढ़ने से क्या लाभ, यदि उसका आचरण नहीं किया जाता है तो। वस्तुत: उसके द्वारा अर्जित किया गया श्रुतज्ञान ही श्रेष्ठ है जो पढ़कर उसे आचरण में भी लाता है। बिना क्रिया के ज्ञान गधे के बोझ के समान है । पत्तूण सम्म-णाणंच, छित्तूण मोहकम्मणो । सु-चारित्त समाजुत्तो, होज मोक्ख-पहे द्विदो ॥५१॥
__ अन्वयार्थ- (सम्म-णाणंच) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान - (पत्तूण) प्राप्तकर (मोहकम्मणो) मोह कर्म को (छित्तूण) छेद कर (सु-चरित्त-समाजुत्तो) सम्यक्चारित्र में अच्छी तरह जुड़कर (मोक्खपहे) मोक्षमार्ग में (ह्रिदो) स्थित (होज) होओ । __ . भावार्थ- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्तकर, मोहकर्म को छेदकर अर्थात् राग-द्वेष नष्ट कर सम्यक्चारित्र से अच्छी तरह युक्त होकर मोक्ष मार्ग में स्थित होओ । इस प्रकार का रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है | जहा सिद्धरसो सुद्धं, णिप्फलो भग्गहीणए । तहा चारित्त हीणस्स, तचणाणं तवो फलं ॥५२॥
अन्ययार्थ- (जहा) जैसे (सुद्धं सिद्धरसो) शुद्ध सिद्धरस (भग्गहीणए) भाग्यहीन में, (णिप्फलो) निष्फल [रहता है] (तहा) वैसे ही (चारित्त हीणस्स) चारित्रहीन का (तचणाणं) तत्त्वज्ञान (तथा) (तवो फलं) तप का फल [निष्फल होता है ।
- भावार्थ- जैसे भाग्यहीन व्यक्ति के हाथ में आया हुआ लोहे को सोना बनाने में समर्थ शुद्ध सिद्धरस (एक प्रकार का रसायन)
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