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अन्वयार्थ - (सद्दिट्ठी - णाण चारित्तं) सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र [रूप] (धम्मं) धर्म को (जो) जो (सुही) बुद्धिमान् (सेवदे) सेवता है (सो) वह (सिग्घं) शीघ्र ही (रसायणव्व) रसायन के समान (सग्गं - मोक्खं च ) स्वर्ग और मोक्ष को (पावदे) पाता है ।
भावार्थ- जो बुद्धिमान् व्यक्ति रसायन श्रेष्ठ औषधि के समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप धर्म का निरन्तर सेवन करता है, वह शीघ्र ही जन्म-मरण रूपी रोगों का नाश कर स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को पाता है ।
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अत्तागम-मुणिंदाणं, सद्दहणं सुदंसणं संकादि-दोस - णिक्कंतं, गुणद्वं च विहूसिदं ॥४४॥
अन्वयार्थ - (संका-मदादि) शंका, मद आदि (च) और तीन मूढ़ता, छह अनायतन ( णिक्कंतं) रहित (गुणद्वं विहूसिदं ) और आठ गुणों से विभूषित होकर (अत्तागम मुणिंदाणं) आप्तआगम - मुनीन्द्रों का ( सद्दहणं ) श्रद्धान करना (सु - दंसण) सम्यग्दर्शन है ।
भावार्थ- शंकादि आठ दोषों से रहित, ज्ञानादि आठ मदों से रहित और तीन मूढता तथा छह अनायतन से रहित एवं आठ अंगों से युक्त होकर सच्चे देव - शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है | गाथा में आया हुआ 'च' अक्षर तीन मूढता और छह अनायतन का वाचक है ।
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सम्मत्तं दुल्लहं लोए सम्मत्तं मोक्ख साहणं । णाण - चरित्तओ वीयं, मूलो धम्म - तरुस्स य ॥४५॥
अन्वयार्थ - (लोए) लोक में, (सम्मत्तं) सम्यक्त्व (दुल्लहं) दुर्लभ है (सम्मत्तं) सम्यक्त्व (मोक्ख साहणं) मोक्ष का साधन है ( णाण - चरितओ बीयं) ज्ञान चारित्र का बीज है (य) और (धम्मतरुस्स) धर्मरूपी वृक्ष का (मूलो) मूल है ।
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