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________________ अस्तेय का पाठ पढ़ाते हैं तथा यह भी कहते हैं कि जहाँ शील है, वहाँ साधक है, उसी से साधक निर्मल यश को प्राप्त करता है। णिस्सीला पुरिसा णारी, इहेव कुक्कराइव । लहंते वध-बंधादि,परत्थ णिरयं परं॥२०॥ इस सूक्तिवचन में कुत्ते के उदाहरण द्वारा यह शिक्षा दी गई कि जो व्यक्ति शील से रहित होते हैं, वे इस भव में वध बन्धन तथा परभव में भयंकर नरक को. प्राप्त होते हैं । विषय एवं शब्दचयन आदि के साथ-साथ इस काव्य रचना में अनेक दृष्टान्त हैं । जो व्यक्ति को स्थिरता प्रदान करते हैं । इनके गीति के मूल में अध्यात्ममयी स्वर साधना है, उसी के आधार पर जन-जन को आत्मयोग का पाठ पढ़ाना चाहते हैं । यह एक ऐसी दशा है जिसमें पूर्ण सागर की गंभीरता है, अनन्त उर्मियों की दिव्यता है । कोमल कल्पना के साथसाथ काव्य जगत् के माधुर्य गुण का आस्वादन भी है । मुनिसुनीलसागर काव्य की रमणीयता में भी आत्म रसानुभूति के स्वाभाविक चित्रण को गति प्रदान करते हैं । अपनी स्वल्प अनुभूति के काव्यगत भावों में प्रविष्ट, असीमगंभीरता के स्वर इस बात को प्रमाणित करते हैं कि आत्मीयता स्वानुभूति है, जो अनिवार्य है और वही रागके मूलभावों से हटाकर परम आनन्द की ओर ले जाती है। वस्तुत: नीति संग्रह आत्मा का स्वानुगत रूप है । आनन्द का अनुभव है । ममत्व और परत्व की भावना से रहित विशुद्ध तत्व का अनुरंजित कारण है। . डॉ. उदयचन्द जैन जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर फोन - २४९१९७४ x Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002546
Book TitleNidi Sangaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar
PublisherJain Sahitya Vikray Kendra Udaipur
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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