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________________ ७७ समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ प्रकार की भावना करता है, वह अन्ततः वैसा ही बन जाता है। भगवद्गीता में स्पष्ट बताया है .. 'श्रद्धामयाऽयं पुरुषः यो यच्छृद्धः स एव सः' जो जैसी श्रद्धा या भावना रखता है, वह वैसा ही बन जाता है । भावना का यह प्रभाव किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है। भावना के कारण ही मनुष्य बनता-बिगड़ता है। उत्तम मनुष्य-शरीर को पाकर भी दुर्भावनाओं के कारण हजारों व्यक्ति राक्षस बन जाते हैं, जबकि शुभ भावनाओं के कारण कुछ व्यक्ति देवों के भी पूजनीय बन जाते हैं । जो विद्यार्थी विद्या प्राप्त करके अपना जीवन निर्माण करने तथा परीक्षा में सफलता प्राप्त करने की भावना से अध्ययन करता है, वह शीघ्र विद्यालाभ करके योग्यता हासिल कर लेता है। इसके विपरीत जो विद्यार्थी अभिभावकों के दबाव से, लाचारी से, बिना मन से, अध्यापकों के त्रास से पढ़ता है, वह विद्यालाभ नहीं उठा पाता, न ही योग्यता प्राप्त कर पाता है। उसका अधिकांश श्रम बेकार चला जाता हैं। मनुष्य की परिस्थितियाँ, कुसंयोग आदि का उसके अनिष्ट होने में बहुत कम हाथ रहता है जितना कि दुर्बल भावना का । किसी रोग, संकट, विपत्ति या मुसीबत के आने पर यदि मनुष्य आशा, उत्साह एवं आत्मविश्वास को छोड़कर चिन्ता, असंतुलन, निराशा, उत्साहहीनता, भीति या शंकाग्रस्तता की भावना करता है तो वह बड़े से बड़े साधन होने पर भी उनसे छुटकारा नहीं पा सकता, जबकि रोग, संकट आदि आ पड़ने पर जो आशा आदि का सम्बल लेकर चिन्ता, भीति, निराशा आदि से दूर रह कर उन रोगादि संकटों से मुक्त हो जाने की प्रबल भावना करता है वह साधन न होते हुए भी उनसे छुटकारा पा लेता है । अतः मनुष्य की भावना ही मृत्यु है और भावना ही अमृत है । भावना की तेजस्विता मनुष्य में साहस, तेज, ओज, मनोबल तथा आयुष्य आदि की वृद्धि करती है जबकि भावना की दुर्बलता या निर्जीवता जीवित रहते हुए भी मनुष्य को निर्जीव, दीन-हीन--क्षीण बना देती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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