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________________ ७५ समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ जीवनशोधन की प्रक्रिया समत्वयोग का आवश्यक अंग है। (ब) भावना प्रश्न यह है कि इस रस को पाप कैसे किया जा सकता है ? इसको प्राप्त करने का साधन है .. भावना । (भाव्यते इति भावना) संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिये जिस वस्तु का बार बार स्मरण किया जाता है तथा जिसकी सहायता से संसार के बन्धन से आत्मा को मुक्त किया जा सके अथवा आत्मा को मोक्षगामी किया जा सके वह है भावना । समझ तथा ज्ञान के अभाव में कोई भी क्रिया वास्तविकता का स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकती । हम कौन है ? कहाँ हैं ? हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस सारे नाटक का अर्थ क्या है ? इन सभी बातों पर विचार करने का कार्य भावना का है। भावना व्यक्ति को अपनी आत्मा के अन्दर देखने में सहायता करती हैं। वह वस्तु की बनिस्पत उसके कारण को देखने की कोशिश करती है । भावना के अभाव में विद्वान पुरुष के विचार में अथवा दिल में भी शान्तरस की उत्पत्ति नहीं हो सकती । शान्तरस के महत्त्व को समझने के लिये भावना के महत्त्व को समझना अति आवश्यक है । क्योंकि आध्यात्मिक भूमिका की शुद्धि के लिये भावना एक साधन है। सर्वप्रथम समत्व को पुष्ट करने वाली चार भावनाओं की आवश्यकता होती है। शास्त्रों में कई स्थानों पर इन चार भावनाओं का वर्णन है जैसे कि "मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकलिश्यमानविनयेषु ॥" "परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिमुदिता, परदोषोप्रेक्षणमुपेक्षा ॥२ "तथा सत्त्वादिषु मैत्र्यादियोग इति ।"३ कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी द्वारा रचित योगशास्त्र में १. उमास्वाति-'तत्त्वार्थ, अध्ययन ७, सूत्र ६. २. हरिभद्रसूरि- 'षोडषक प्रकरण'- चतुर्थ षोडषक, श्लोक १५ ३. हरिभद्रसूरि- 'धर्मबिन्दु प्रकरण' अध्याय ३ सूत्र ९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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