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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएं और ज्यादा स्पष्ट रूप से की गई है ।
"वैराग्य-संसारभीरुता-तत्त्वज्ञान-वीतरागचरण-. परिचरण- परमेश्वरानुग्रहादि-वियो, यम-निग्रमा - ध्यात्मशास्त्रचिन्तनाद्यनुभावो, धृति-स्मृति( निश्चेष्टः )मत्यादि-व्यभिचारी शमाभिधानः स्थायिभावाश्चर्यजीयतां गतः शांतरसः ।
आचार्य पुरन्दर श्री मुनिसुंदरसूरिश्वजी महाराज ने आध्यात्मकल्पद्रुप की रचना करते हुए प्रथम मंगल श्लोक में "शान्तरस का वर्णन करता हूँ" यह कहकर अध्यात्म से लगती हुई बाबतों को शांतरस की माना है -.
जयश्रीरान्तरारीणां लेभे येन प्रशान्तितः । तं श्री वीरजिनं नत्वा "रसः शान्तो विभाव्यते ॥ इस ग्रंथ की टीका में "शांत" रस को "रसाधिराज" कहा गया है।
शान्तरस को छोड़कर बाकी सभी रसों को अस्थाई तथा दुःख का कारण माना है । शान्तरस ही एक ऐसा रस है जो चिरस्थायी तथा दुःख का नाश तथा सुख की वृद्धि करने वाला है। इसके आने पर आत्मा में जागृति पैदा होती है तथा जीवन परिवर्तित हो जाता है इसलिये इसे "रसाधिराज" कहा गया है ।
१. पंडित वाग्मटकृत-. 'काव्यानुशासन' अध्याय पृष्ठ ५७. २. अध्यात्मकल्पद्रुम श्लोक १
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