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समत्वयोग और महात्मा गांधी को वंचित रखकर अपने को समृद्ध वह कैसे बनाए ? यह संभव ही नहीं । गाँधीजी का अपरिग्रह-दर्शन और भगवान् महावीर का अपरिग्रह-विचार इसी से निष्पन्न है । उनका स्रोत भीतर का सर्वात्म-तादात्म्य है, जो करुणा व प्रेम की भावना में तथा विसर्जन और बलिदान के व्यवहार में साकार होता है ।
संक्षेप में, साधारण दैनिक आवश्यकताओं से अधिक भौतिक पदार्थों का संग्रह न करना ही अपरिग्रह अथवा असंग्रह है। फिर उस साधारण संग्रह पर भी अपना स्वामित्व न मानकर समाज अथवा ईश्वर का स्वामित्व मानना भी इसके अन्तर्गत शामिल है । गाँधी सभी प्रकार के संग्रह के विरुद्ध हैं । व्यक्तिगत सम्पत्ति में उनकी कोई आस्था नहीं है। जल, वायु, अग्नि की भाँति सम्पत्ति भी किसी की नहीं अथवा समान रूप से सबकी है। द्रव्य का संचय एक आसुरी विचार है एवं इसके संग्रह में हिंसा का निवास है। उनके अनुसार किसी व्यक्ति की आर्थिक सम्पन्नता उसके आध्यात्मिक दिवालियापन की द्योतक है। आध्यात्मिकता के क्षेत्र में धन का न्यूनतम महत्त्व है। शैतान (धन) और देवता दोनों की एकसाथ पूजा नहीं की जा सकती । गाँधीजी समान-वितरण में विश्वास रखते हैं । उनके अनुसार हरिजनों, डॉक्टरों, वकीलों, अध्यापकों, व्यापारियों एवं अन्य सभी को समान वेतन मिलना चाहिए।
गाँधीजी ने राम-राज्य की कल्पना में पूर्ण समतामय समाज की अवधारणा. प्रस्तुत की थी और धनपतियों से कहा था कि वे सारे समाज की सम्पत्ति के मात्र न्यासी(ट्रस्टी) हैं। गाँधीजी की ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, महावीर का अपरिग्रह तथा कृष्ण की संन्यास- भावना थी जो सामाजिक समता के लिए आवश्यक थी और समता अहिंसा की आधार- पीठिका होने से गाँधीजी के सत्य को साकार करने का माध्यम थी, उनके ईश्वर का कलेवर बनने के कारण अध्यात्म की अनिवार्य जीवनापेक्षा थी। उसे स्पष्ट करते हुए विनोबा ने गाँधीजी के बारे में अपने एक वक्तव्य में कहा है - "आज के समाज की अपेक्षा दास्यभक्ति नहीं, सख्यभक्ति है, मालिक और नौकर की धारणाएँ अकाम्य लग रही हैं । अतः मैं कहता हूँ कि व्यक्तिगत स्वामित्व का खात्मा होना आवश्यक है। .... गाँधीजी के 'ट्रस्टीशिप' का अंत मजदूरों को थोड़ा-सा ज्यादा वेतन देने से ही नहीं होगा, बल्कि इसका मूल अर्थ है समय गजरने के साथ ट्रस्टी भी नहीं रहना चाहिए।"
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