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समत्वयोग और महात्मा गांधी
५७ दुःख, हानि - लाभ और जीवन-मरण जैसे सनातन द्वन्द्वों से ऊपर उठकर, जीने
और काम करने की कला सीखी । उन्होंने रंग भेद, जाति-भेद को मिटाने का दृढ़ संकल्प किया तथा उसमें जी-जान से लग गए ।
दक्षिण अफ्रिका में ही गाँधीजी ने गीता का अध्ययन किया और उसके मर्म को समझा।
'शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः गीता की इस सुप्रसिद्ध उक्ति के अनुसार उन्होंने मनुष्य-मनुष्य के बीच के भेदों की व्यर्थता को समझा और प्राणिमात्र के प्रति समता का ज्ञान उन्हें हुआ । वहीं इस परिणाम पर पहुँचे कि मनुष्यमात्र को अपना मित्र और साथी समझो पर मनुष्यों में पाइ जाने वाली बुराइयों को मिटाने के लिए निर्वैर
और नि:संगभाव से सतत जुझते रहो । इस सिलसिले में उन्हें वहाँ निष्क्रिय प्रतिरोध का, असहयोग का, आगे चलकर सत्याग्रह का रास्ता सूझा ।
उन्होंने परिवार की संकीर्ण परिभाषा को जड़-मूल से बदला । सारा विश्व उनका परिवार था जो मनुष्य-समाज की सीमा से परे पशु-पक्षी, पेड़पौधे और कीड़े-मकोड़ों तक फैलता चला गया । साबरमती आश्रम में यह जानते हुए कि वहाँ पर साँपों का विशाल परिवार है, उन्होंने कभी किसी साँप को मारने नहीं दिया । समता की उनकी साधना ने ही उनमें इन विलक्षण गुणों का और तन-मन की इन अनोखी शक्तियों का इतना सुन्दर विकास होने दिया था । पंडित सुखलालजी के शब्दों में "संसार के अनेक महापुरुषों और अवतारी पुरुषों के विषय में उन्होंने जो कुछ जाना, सुना और समझा है, उसे ध्यान में रखकर वे नि:संकोच यह कहने कि स्थिति में हैं कि गाँधीजी के जीवन में और कार्य में उन्होंने जिस अखण्ड जागति के दर्शन किए हैं, वैसी जागृति और किसी महापुरुष में इससे पहले कभी देखी-सुनी नहीं गई । वह उन्हीं की अपनी एक विशेष विभूति थी, जो जन्मजात तो नहीं थी, पर जिसे उन्होंने अविरत साधना के सहारे सिद्ध किया था ।"
समता की साधना ने ही गाँधीजी को ब्रह्मचर्य व्रत की ओर मोड़ा। गाँधीजी के सम्पर्क में आने वाली प्रत्येक स्त्री निर्भय होकर उनके साथ रह सकती थी। उन स्त्रियों को गाँधीजी का साथ अपनी माँ के साथ के समतुल्य
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