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समता हर धर्म के साथ किसी न किसी सीमा तक बंधी हुई है । वीतरागता से जुड़ी हुई समता आध्यात्मिक समता है जो आगमों और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्यादवाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्जवाद में देख सकते हैं तथा कारुण्यमूलक समता पर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं । मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिए हुए है 1
८. समत्वयोग और कार्ल मार्क्स
महावीर इतिहास में प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने मानव को सर्वोपरि प्रतिष्ठा दी और इसके लिए इस सीमा तक आगे बढ़े कि ईश्वर की नियामक सत्ता को भी बुलन्द आवाज में स्पष्टतः नकार दिया । उन्होंने कार्ल मार्क्स से हजारों वर्ष पूर्व कहा
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि
'असंविभागी असंगहरुई अप्पमाणभोई
से तारिसए नाराहए ययमिण "
" जो असंविभागी है जीवन-साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर उनके प्रकृति प्रदत्त संविभाग को नकारता है, असंग्रहरुचिजो अपने लिए ही संग्रह करके रखता है और दूसरों के लिए कुछ भी नहीं रखता, अप्रमाणभोजी- मर्यादा से अधिक भोजन एवं जीवन-साधनों का स्वयं उपभोग करता है, वह अस्तेय का आराधक नहीं, विराधक है । अर्थात् वह 'स्तेय' याने चोरी करता है, अदत्तादान अर्थात् जो उसका नहीं है उसे अपना मानता है, जो उसे नहीं दिया गया है उसे बलात् लिए हुए है।" मनु इसके समानान्तर बात कहता है कि "आज और इसी पल जीवननिर्वाह के लिए, जो आवश्यक है उससे अधिक अन्न का एक कण भी, सूत का एक धागा भी जिसने संग्रह कर रखा है वह स्तेय - चोरी कर रहा है और दण्ड पाने योग्य हैं ।"
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कार्ल मार्क्स के समूचे चिन्तन का आधार ही विषमता के स्थान पर समानता की स्थापना करना है । मार्क्स अपने अध्ययन के आधार पर इस
समता-दर्शन-व्यवहार- समाज डॉ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय
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