SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९७ समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,....... गई है। उसमें जो दृश्य के अस्तित्वको बन्ध का कारण कहा है; उसका तात्पर्य दृश्य के अभिमान या अभ्यास से है । (५) जैसे, जैन शास्त्र में ग्रन्थिभेद का वर्णन है वैसे ही योगवासिष्ठ में ' भी है । (६) वैदिक ग्रन्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म, माया के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि रचता है; तथा स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है २. इत्यादि बातों की संगति जैन शास्त्र के अनुसार इस प्रकार की जा सकती है-आत्मा का अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आना, ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है। क्रमश: सूक्ष्म तथा स्थूल मन के द्वारा संज्ञित्व प्राप्त करके कल्पनाजाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि है। शुद्ध आत्म-स्वरूप व्यक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाश होना ही कल्प के अन्त में स्थावर जंङगमात्मक जगत् का नाश है । आत्मा अपनी सत्ता भूलकर जड़ सत्ता को स्वसत्ता मानती है, जो अहंत्व-ममत्व भावना रूप मोह का उदय और बन्ध का कारण है । वही अहंत्व-ममत्व भावना वैदिक वर्णन शैली के अनुसार बन्धहेतुभूत दृश्य सत्ता है। उत्पत्ति, वृद्धि, विकास, स्वर्ग, नरक आदि जो जीव की अवस्थाएँ वैदिक ग्रन्थों में वर्णित ' हैं, वे ही जैन-दृष्टि के अनुसार व्यवहार-राशि गत जीव के पर्याय हैं । (७) योगवासिष्ठ में ' स्वरूप-स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूप-भ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना है वही जैन शास्त्र में भी सम्यक् ज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमश: स्वरूप ' बतलाया है ।(८) योगवासिष्ठ में जो सम्यक्ज्ञान का लक्षण है, वह जैन शास्त्र के अनुकूल है। (९) जैन शास्त्र में सम्यक् दर्शन की प्राप्ति, (१) स्वभाव और (२) बाह्य निमित्त, इन दो प्रकार से जो बतलाई है ' वैसा ही क्रम योगवासिष्ठ में भी ज्ञानप्राप्ति का सूचित किया ' है। (१०) जैन शास्त्र के चौदह गुणस्थानों के १. उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग ११८ २. उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग १ । ३. उत्पत्ति - प्रकरण, सर्ग १ । ४. उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११७ । ५. (१) ज्ञानसार, मोहाष्टक । (२) ज्ञान सार, ज्ञानाष्टक ६. उपशम - प्रकरण, सर्ग ७८ । ७. तत्त्वार्थ - अ० १, सूत्र ३ ८. उपशम - प्रकरण, सर्ग ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy