________________
• समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,....
ऊपर के घने आवरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं ।
पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरात्म - अवस्था का चित्रण है । चौथे से गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था का दिग्दर्शन है और तेरहवाँ, चौदहवाँ गुणस्थान अवस्था का वर्णन है ।
के
१
बारहवें
परमात्म
-
पर
आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिए वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहती । ध्यान के सामान्य रीति से (१) शुभ और (२) अशुभ, ऐसे दो विभाग और विशेष रीति से (१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म और (४) शुक्ल, ऐसे चार विभाग शास्त्र २ में किये गए हैं। चार में से पहले दो अशुभ और पिछले दो शुभ हैं। पौद्गलिक दृष्टि की मुख्यता के किंवा आत्म विस्मृति के समय जो ध्यान होता है वह अशुभ है, और पौद्गलिक दृष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान - दशा में जो ध्यान होता है वह शुभ है। अशुभ ध्यान संसार का कारण है और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है । पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रौद्र, ये दो ध्यान ही तर -तम- भाव से पाये जाते हैं। चौथे और पाँचवें गुणस्थान में उक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्म ध्यान भी होता है। छठे गुणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यान होते हैं। सातवें गुणस्थान में सिर्फ धर्म ध्यान होता है। आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं ।
३
तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में सिर्फ शुक्ल ध्यान होता है ।
गुणस्थानों में पाये जाने वाले ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा गुणस्थानों में किये हुए बहिरात्म-भाव आदि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं किस गुणस्थान का अधिकारी हूँ। ऐसा ज्ञान, योग्य अधिकारी की नैसर्गिक महत्त्वाकांक्षा को ऊपर के गुणस्थानों के लिए उत्तेजित करता है ।
२९५
(ii) वैदिक परम्परा में
जो दर्शन, आस्तिक अर्थात् आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्ष - योग्यता मानने वाले हैं, उन सभी में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास
१. अध्यात्ममतपरीक्षा, गाथा १२५, योगावतारद्वात्रिंशिका, १७, १८
२. ' आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ।', - तत्त्वार्थ - अध्याय ९, सूत्र २९
३. तत्त्वार्थ अ०९, सूत्र ३५ से ४० ।
ध्यानशतक, गा० ६३ और ६४ तथा आवश्यक हारिभद्री टीका ५० ६०२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org