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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि पर भी मोह, जिस भूमिका से आत्मा को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है । मोह को क्रमश; दबाते-दबाते सर्वथा दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धिवाली दो भूमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं। यह गुणस्थान अधःपतनका स्थान है : क्योंकि जो नौवां अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तथा दसवाँ सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान कहलाता है। उसे पाने वाली आत्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरती है।
दूसरी श्रेणीवाली आत्मा मोह को क्रमश: निर्मूल करते - करते अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालती है । सर्वथा निर्मूल करने की जो उच्च भूमिका है, वही बारहवाँ गुणस्थान है। (१०) सूक्ष्म सम्पराय __ इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्वथा निर्मूल करने से पहले बीच में नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इसी प्रकार देखा जाए तो चाहे पहली श्रेणीवालों व्यक्ति हों, चाहे दूसरी श्रेणीवाले, पर वे सब नौवाँ - दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करते ही हैं। दोनों श्रेणीवालों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणीवालों की अपेक्षा दूसरी श्रेणीवालो में आत्मशुद्धि व आत्म-बल विशिष्ट प्रकार का पाया जाता है। जैसे-किसी एक दर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के तो ऐसे होते हैं जो सो कोशिष करने पर भी एकबारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते । पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाइयों को पार कर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क पास कर ही लेते हैं। उन दोनों दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। (११) उपशान्त मोह
नौवें तथा दसवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाली उक्त दोनों श्रेणीगामी आत्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है, जिसके कारण एक श्रेणीवाले व्यक्ति तो दसवें गुणस्थान को पाकर अंत में ग्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार खाकर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणीवाले व्यक्ति दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं।
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