________________
२७२
समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि उक्त निश्चय योग और व्यवहार योग' दोनों को समष्टि रूप से आचार्य हरिभद्रसूरि ने महायोग' नाम से भी अभिहित किया है, और इस के अन्तर्गत दान, शील, तप, भावना आदि प्रवृत्ति परक एवं निवृत्ति-परक दोनों धर्मों का समावेश किया है।'
__ योग साधक की मन:स्थितियों के आधार पर, योग के तीन भेद किए गए हैं। वे हैं : (१) इच्छायोग (२) शास्त्रयोग, और (३) सामर्थ्य योग । इच्छा, शास्त्र और सामर्थ्य - इनकी प्रधानता के कारण तीनों योगों का नामकरण किया गया है। इच्छायोग' के साधक में योगाभ्यास की तीव्रतम इच्छा होते हुए भी प्रमादवश अभ्यास करना संभव नहीं हो पाता। 'शास्त्रयोग' के साधक में शास्त्रों का अनुसरण करते हुए भी साधना में प्रवृत्ति का सामर्थ्य नहीं होता । ‘सामर्थ्ययोग' का साधक योगसाधना में प्रवृत्त होने के सामर्थ्य से युक्त होता
इसी प्रकार जैन धर्म में योगदृष्टियों के आठ भेद वर्णित किए गए हैं : (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कान्ता, (७) प्रभा, (८) परा २
उक्त आठों दृष्टियाँ आध्यात्मिक विकास की क्रमिक श्रेणियाँ हैं। इन सबमें किसी न किसी मात्रा में धार्मिक प्रवृत्ति का सद्भाव रहता है, इसलिए इन्हें योगदृष्टि' के अन्तर्गत
परिगणित किया गया है। .. अध्यात्म-योग साधना में साधक के लिए आन्तरिक सद्गुण ही सहायक का कार्य करते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग-सिद्धि के साधनों के रूप में जिन आन्तरिक गुणों का वर्णन किया है, वे इस प्रकार हैं : - (१) उत्साह, (२) निश्चय, (३) धैर्य, (४) सन्तोष, (५) तत्त्वदर्शन और (६) जनपदत्याग (अर्थात् अपने परिचित स्थान आदि का त्याग, या साधारण लौकिक व्यक्तियों द्वारा अंगीकृत चर्या का त्याग) ३
इसके अतिरिक्त, योग साधना में (१) शास्त्र परिशीलन, (२) अनुमान या युक्ति का आश्रयण या प्रयोग, (३) ध्यान का अभ्यास - इन तीन साधनों की महत्ता भी प्रतिपादित १. धर्म्यस्तु सम्यग्दर्शनादिरूपो दानशीलतपो भावनामय:साम्रवानासवां महायोगात्मकः । (ललित
विस्तरा पृ०.६३) २. योगदृष्टि समु० - १२ - १३ ३. योगबिन्दु - ४११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org