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________________ २७० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि तटस्थतापूर्वक देखना, बाहर से चित्त को अन्तर्मुख करना सम्यक् दर्शन है। उसे देखने में किसी प्रकार का रागद्वेष न हो, समता-पूर्वक देखना यह योगी की दूसरी क्रिया है। पहली क्रिया कायोत्सर्ग की, जिसमें काया को भूलकर साँस का ध्यान करना और दूसरी क्रिया में शरीर में चलने वाली क्रिया को सजग होकर देखना । जब मन को बाहरी दुनियाँ से अपने आपको देखने में लगाते हैं तो सहज में वह अपने आपको देखने में केन्द्रित होता है । और चूँकि वह राग-द्वेष से रंगा नहीं होता है तो ग्रन्थिबंधन नहीं होता और नई ग्रन्थि न बंधने से मनुष्य निर्ग्रन्थ बनता है। न मालूम हम इस राग-द्वेष के कारण कितनी ही ग्रन्थियाँ बाँधते जाते हैं, तनाव से बेचैन होते हैं। यदि हम बैठकर या खड़े रहकर अथवा तो सोकर कायोत्सर्ग द्वारा शरीर का शिथिलीकरण करें और मन को आती और जाती साँस पर केन्द्रित करें तो हम शान्ति और ताजगी पा सकते हैं। ___हम शारीरिक क्रियाओं द्वारा शरीर का प्रकंपन करते रहते हैं, मन विविध विषयों में घूमता है तो, उसका प्रकंपन होता है और वाणी द्वारा भी प्रकंपन होता रहता है। इस शक्ति को यदि हम एक स्थान पर स्थिर बैठकर, शारीरिक प्रकंपनों को मौन द्वारा वाणी के कारण होने वाले प्रकपंनों और श्वास की एकाग्रता द्वारा मानसिक प्रकंपनो को रोक सकें तो स्वाभाविक ही हमारी ऊर्जा - शक्ति बचेगी और हम अपने आपकी अनुभूति लेने को उसे लगायेंगे और स्व के दर्शन का जो ज्ञान होगा वह हमें सम्यक् आचार की ओर प्रेरित करेगा। आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्वयं उक्त तथ्य को इस प्रकार व्यक्त किया है कि योग साधना से मुक्ति मिलती है। इस योग साधना का वर्णन करने वाली भले ही अनेक परम्पराएँ हों, किन्तु मूलत: उनमें कोई भेद नहीं है। जब सभी परम्पराओं का साध्य या लक्ष्य एक है, तब वर्णन-शैली की भिन्नता से उनको पृथक् पृथक् या भिन्न-भिन्न मानना उचित नहीं है।' आचार्य हरिभद्रसूरी के मत में समुद्र में मिलने वाले विभिन्न तट मार्गों की तरह सभी योगसाधना-पद्धतियों का लक्ष्य वीतराग - परिणति' या 'समताभाव' की साधना है। ' उक्त १. मोक्षहेतुर्यतो यौगो भिद्यते न तत: क्वचित् । . सध्याभेदात् तथाभावे तूक्तिभेदो न कारणम् । - योगबिन्दु - ३ २. योगदृष्टि समुच्चय - १२८ (एक एव तु मार्गोऽपि तेषां शमपरायणः । अवस्था भेद-भेदेऽपि जलधौ तीरमार्गवत् ।।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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