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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
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उत्कृष्ट दशा है, उसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थो के अनन्त पर्याय एकसाथ प्रतिभासित होते है । स्याद्वाद का क्षेत्र लोक व्यवहार भी है और द्रव्यमात्र भी है, जिसका परिज्ञान सप्तभंगी द्वारा हो जाता है । स्याद्वाद हमें केवल जैसे - तेसै अर्धसत्यों को ही पूर्ण सत्य मान लेने के लिए बाध्य नहीं करता है । किन्तु सत्य के दर्शन करने के लिए अनेक मार्गों की खोज करता है । स्याद्वाद का कथन है कि मनुष्य की शक्ति सीमित है, इसीलिए वह आपेक्षिक सत्य को ही जान सकता है। हमें पहले व्यावहारिक विरोधों का समन्वय करके आपेक्षिक सत्य को प्राप्त करना चाहिए और आपेक्षिक सत्य को जानने के बाद हम पूर्ण सत्य केवलज्ञान का साक्षात्कार करने के अधिकारी हो सकते हैं ।
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यद्यपि स्याद्वाद को विरोधी समालोचकों के भरपूर आक्षेप सहन करने पड़े हैं परन्तु भगवान् महावीर अनन्तधर्म वाली वस्तु के संबंध में व्यवस्थित और पूर्ण निश्चयवादी थे । उन्होंने न केवल वस्तु का अनेकान्त स्वरूप ही बताया किन्तु उसके जानने-देखने के उपाय नय दृष्टियाँ और उसके प्रतिपादन का प्रकार स्याद्वाद भी बताया ।
स्यादवाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद है, न किंचित्वाद है और न संभववाद या अभीष्टवाद ही है । वह तो "अपेक्षा से प्रयुक्त होने वाला निश्चयवाद है ।" इसीलिए स्याद्वाद संपूर्ण जैनेतर दर्शनों का उन-उनकी दृष्टिको यथास्थान रखकर समन्वय करने में समर्थ हो सका है।
८. अनेकान्तवाद का आधुनिक दार्शनिकों पर प्रभाव
विभिन्न दर्शनकारों ने किसी समस्या को हल करने एवं कहीं पर आने वाली विसंगति को दूर करने के लिए अज्ञात रूप से अनेकान्त दृष्टि या उसके समानधर्मा उपाय अपनाया
है ।
महामुनि पतंजलि का व्याकरण महाभाष्य में जो कथन है, उसको लें। पतंजलि का समय ईसा से पहले दूसरी शताब्दी है । महामुनि के सम्मुख यह प्रश्न आया कि किं पुनः नित्यः शब्द : आहोस्वित् कार्य:
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शब्दनित्य है या अनित्य ? इसका उत्तर आगे वे देते हैं ।
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" संग्रहे एतत्प्राधान्येन परीक्षितम् ॥
१. व्याकरणमहाभाष्य भूमिका - ( म. म. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी पृ. २७ चौखम्बा सन् १९५४ । २. व्याकरणमहाभाष्य १/१/१, पृ. ३७
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