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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
२५१ देखने का प्रयास न कर अनेक भारतीय दार्शनिकों ने अपने एकांगिक चिन्तन के आधार पर स्याद्वाद सिद्धान्त की आलोचना एवं उस पर दोषारोपण करने का प्रयास किया है।
कोई वस्तु है भी, और नहीं भी है -यह कथन अन्य दर्शनकारों को हृदयंगम नहीं होता। किसी भी वस्तु में अस्तित्व के साथ नास्तित्व को भी धर्म रूप से बतलाना ऊपरी सतह वाले मानसिक धरातल पर जमता नहीं है। अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरुद्ध धर्म दिखते हैं। विरोधी धर्म एकसाथ एक वस्तु में कैसे रह सकते हैं ? इस तर्क के साथ अन्य तर्क भी अनेकान्त के विरोध में प्रतीत होने लगते हैं। यही कारण है कि अन्य दर्शनकारों को अनेकान्तवाद सदोष मालूम पड़ा और उन्होंने इसमें तर्क द्वारा कई दोष उद्भावित किये हैं।
सर्वप्रथम हम आचार्य धर्मकीर्ति को लेते हैं। ये विद्वान बौद्ध आचार्य हैं और उपलब्ध साहित्य के अनुसार अनेकान्त-विरोधी तर्क के सर्वप्रथम प्रस्तोता हैं।
आचार्य धर्मकीर्ति के दो तर्क सामने आते हैं - १. एक तो वस्तु को स्व-पररूप मानने से बड़ी कठिनाई पेदा होना। २. दूसरे सबको सब स्वरूप मानने से बुद्धि और शब्द भिन्न नहीं हो सकेंगे।
आचार्य धर्मकीर्ति ने जो प्रथम विरोधी तर्क उपस्थित किया है, वह वस्तु को स्वपररूप मानने की मान्यता को लेकर है। लेकिन साधारण तौर पर देखा जाय तो यह अनेकान्तवाद की मान्यता नहीं है। अनेकान्तवाद वस्तु में स्वरूप की दृष्टि से सत्त्व और पररूप की दृष्टि से असत्त्व मानता है। घट घटत्व की अपेक्षा सत् है, पटत्व की अपेक्षा असत् है। इसका मतलब यह हआ कि घट पट नहीं है। तभी तो पटत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व आता है। यदि घट को रूप भी मान लिया तो पट्टत्वावच्छेदेन उसमें नास्तित्व धर्म नहीं आयेगा। अनेकान्तदर्शन तो वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों को मानता है। उसके मत में सत्व असत्व को छोड़कर नहीं रहता है। दोनों धर्म वस्तु में अवच्छेदक भेद से रहते हैं।'
इस विवेचन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो अनेकान्त दर्शन वस्तु को पररूप नहीं मानता है। अत: आचार्य धर्मकीर्ति का यह दूषण उद्भावित करना अनुचित एवं निर्मूल है। १. स्याद्वाद मंजरी श्लोक २८, पृ १९५
"उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं नार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च इत्यप्रबुध्यैव विरोधभीताः ... ॥२८॥
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