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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सामान्य गुण की दृष्टि से अभिन्न । ' भगवती सूत्र हमें बताता है “जीव पुद्गल भी है और पुद्गली भी है। शरीर आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। शरीर रूपी भी है और अरूपी भी है, सचित्त भी है और अचित्त भी है।” ____ जीव की पुद्गल संज्ञा है, इसलिए वह पुद्गल है । वह पौद्गलिक इन्द्रिय सहित है, पुद्गल का उपभोक्ता है, इसलिए पुद्गली है; अथवा जीव और पुद्गल में निमित्तनैमित्तिक भाव है। संसारी दशा में जीव के निमित्त से पुद्गल की परिणति होती है और पुद्गल के निमित्त से जीव की परिणति होती है, इसलिए पुद्गली है।
शरीर आत्मा के पौद्गलिक सुख-दु:ख की अनुभूति का साधन बनता है, इसलिए वह उससे अभिन्न है । आत्मा चेतन है। काय अचेतन है । वह पुनर्भवी है, काय एकभवी है। इसलिए ये दोनों भिन्न हैं। स्थूल शरीर की अपेक्षा वह रूपी है और अपने स्वरूप की अपेक्षा वह अरूपी है। शरीर आत्मा से क्वचित् अपृथक्क भी है, इस दृष्टि से जीवित शरीर चेतन है। वह पृथक् भी है इस दृष्टि से अचेतन, मृत शरीर अचेतन होता ही है।
यह पृथ्वी स्यात् है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवक्तव्य है । वस्तु स्व-दृष्टि से है, पर-दृष्टि से नहीं है, इसलिए वह सत्-असत् उभय रूप है । एक काल में धर्म की अपेक्षा वस्तु वक्तव्य है और एक काल में अनेक धर्मों की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है। इसलिए वह उभय रूप है। जिस रूपमें सत् है , उस रूप में सत् ही है और जिस रूप में असत् है उस रूप में असत् ही है। वक्तव्य-अवक्तव्य का भी यही रूप बनता है। ___उपनिषद में एक शिष्य ने गुरु से पूछा - “हे भगवन् ! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसके ज्ञान से वस्तुमात्र का ज्ञान हो जाय ?" (मुण्डक १-१-३) ऐसा ही एक प्रश्न पूछनेवाले दूसरे विद्यार्थी श्वेतकेतु को उसके पिता आरुणि ने कहा : मिट्टी के एक लोंदे को जान लेने से मिट्टी से बनी हुई सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है - एकेन मृत्पिण्डेन विज्ञातेन मृण्मयं विज्ञातं स्यात् । (छांदोग्य -६-१-४)
जैन धर्म ने वह बात तो बताई सो बताई किन्तु साथ ही में उससे फलित होनेवाले एक उपसिद्धान्त का भी निर्माण किया और स्याद्वाद का स्वरूप-वर्णन करते हुए कहा कि जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता है वह सभी पदार्थों को सर्वथा जानता है। जो सर्व पदार्थों १. भगवती ८/४९९ २. वही १३/१२८ ३. वही १३/१२८
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