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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २२५ भंग हो सकता है। ४. अनेकान्त की खोज का उद्देश्य और उसके प्रकाशन की शर्ते:
वस्तु का पूर्ण रूप में त्रिकालाबाधित-यथार्थ दर्शन होना कठिन है, किसी को वह हो भी जाय तथापि उसका उसी रूप में शब्दों के द्वारा ठीक-ठीक कथन करना उस सत्यद्रष्टा
और सत्यवादी के लिए भी बड़ा कठिन है। कोई उस कठिन काम को किसी अंश में करने वाले निकल भी आएँ तो भी देश, काल, परिस्थिति, भाषा और शैली आदि के अनिवार्य भेद के कारण उन सबके कथन में कुछ-न-कुछ विरोध या भेद का दिखाई देना अनिवार्य है । यह तो हुई उन पूर्णदर्शी और सत्यवादी इने-गिने मनुष्यों की बात, जिन्हें हम सिर्फ कल्पना या अनुमान से समझ या मान सकते हैं।
हमारा अनुभव तो साधारण मनुष्यों तक परिमित है और वह कहता है कि साधारण मनुष्यों में भी बहुत से यथार्थवादी होकर भी अपूर्णदर्शी होते हैं । ऐसी स्थिति में यथार्थवादिता होने पर भी अपूर्ण दर्शन के कारण और उसे प्रकाशित करने की अपूर्ण सामग्री के कारण सत्यप्रिय मनुष्यों की भी समझ में कभी - कभी भेद आ जाता है। और संस्कार-भेद उनमें और भी पारस्परिक टक्कर पैदा कर देता है । इस तरह पूर्णदर्शी और अपूर्णदर्शी सभी सत्यवादियों के द्वारा अन्त में भेद और विरोध की सामग्री आप ही आप प्रस्तुत हो जाती है । या दूसरे लोग उनसे ऐसी सामग्री पैदा कर लेते हैं।
ऐसी वस्तुस्थिति देखकर भगवान् महावीर ने सोचा कि ऐसा कौन-सा रास्ता निकाला जाए जिससे वस्तु का पूर्ण या अपूर्ण सत्यदर्शन करने वाले के साथ अन्याय न हो । अपूर्ण
और अपने से विरोधी होकर भी यदि दूसरे का दर्शन सत्य है, इसी तरह अपूर्ण और दूसरे से विरोधी होकर भी यदि अपना दर्शन सत्य है तो दोनों को ही न्याय मिले इसका क्या उपाय है ? इसी चिन्तन प्रधान तपस्या ने भगवान को अनेकान्त दृष्टि सुझाई, उनका सत्य-संशोधन १ - 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' श्लोक ५९ (अमृतचन्द्र सूरि)।
'अत्यन्तनिशितधारदुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् खंड्यति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ।।"
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