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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २२१ और कोई भी व्यक्ति शास्त्रीय आधार पर सम्पूर्ण सत्य को साक्षात् नहीं जान पाता । दर्शनों का यह अन्तर और मतवादों का भेद हमारे ज्ञान और प्रतिपादनशक्ति की अपूर्णता के कारण ही चल रहा है। यह भेद सत्य को विभक्त किए हुए है। जितने दर्शन उतने ही सत्य के रूप बन गए हैं। जिन-दर्शन का अध्ययन हमें सत्य की दिशा में आगे ले जाता है और दर्शन के आकाश में छाए हुए कुहासे में देखने की क्षमता देता है। द्रव्य के अनन्त धर्म हैं। कोई दर्शन किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है तो दूसरा दर्शन किसी दूसरे धर्मको मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है। दोनों की पृष्ठभूमि में एक ही द्रव्य है, किन्तु एकांगी प्रतिपादन के कारण वे विरोधी से प्रतीत होने लगते हैं। उनमें प्रतीत होने वाले विरोध का शमन अनेकान्त दृष्टि से ही किया जा सकता है। __अनेकान्त के बिना अहिंसा की गहराई का स्पर्श कभी भी नहीं हो सकता । किसी व्यक्ति के विपरीत व्यवहार को देखकर अगर हमारे मन में उसके प्रति घृणा होती है, द्वेष होता है, तो वह घृणा और द्वेष संसार की वृद्धि के कारण हैं । हिंसा की जड़ में ही राग, द्वेष, ईर्ष्या और माया हैं । अहिंसा का मूल उद्गम समत्व से होता है और समत्व ही अनेकान्त का हृदय है। दूसरे शब्दों में अनेकान्त वैचारिक अहिंसा का विकसित रूप है। “अनेकान्त दृष्टि सत्य पर खड़ी है। यद्यपि सभी महान पुरुष सत्य को पसन्द करते हैं और सत्य की खोज तथा सत्य के ही निरूपण में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, तथापि सत्य के निरूपण की पद्धति और सत्य की खोज सबकी एक-सी नहीं होती। बुद्धदेव जिस शैली से सत्य का निरूपण करते हैं या शंकराचार्य उपनिषदों के आधार पर जिस ढंग से सत्य का प्रकाशन करते हैं उनसे महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली जुदा है। महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का ही दूसरा नाम “अनेकान्तवाद' है। उसके मूल में दो तत्त्व हैं - पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है।" २. अनेकान्त का उद्गव तथा उद्देश्य अनेकान्त के उद्भव के दो आधार हैं, इतहिास और परम्परा । परम्परा की दृष्टि से इस युग में अनेकान्त के तीर्थंकर ऋषभदेव है। सर्व प्रथम यह उपदेश ऋषभदेवने दिया । १. दर्शन और चिन्तन : पं.सुखलालजी २. श्रमण संस्कृति का विकास एवं विस्तार - डॉ.पुष्पमित्र (अमरभारती मार्च-एप्रिल १९७१) sain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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