________________
समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक
१६९ ही मन:पर्यय ज्ञान उन्हें स्वयं प्राप्त होता है।
इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा ग्रहण करते समय सामायिक साधना की प्रतिज्ञा लेते हैं।
सव्वं मे अकरणिजं पावकम्मं त्ति कटु सामाइयं चरितं पडिवजइ ।
तदुपरान्त प्रत्येक तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान-प्राप्ति के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं और सबसे प्रथम उपदेश सामायिक व्रत का ही देते हैं।
आवश्यक कर्तव्य का प्राथमिक अंग सामायिक । वैदिक संध्या, मुसलमानों की नमाज और योगियो के प्राणायाम की तरह जैनियों के लिए सामायिक-व्रत का विधान है। इस व्रत की आधारभूमि इतनी व्यापक है कि इसमें यम नियम के, ज्ञान, भक्ति, कर्म के, सत्यं शिवं सुन्दरम् के सभी आयाम समाविष्ट हो जाते हैं । इसकी मूल भावना विषमता से समता, अव्यवस्था से व्यवस्था और जीवन में मैत्री तथा करुणा की स्थापना करता है। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है :
सामाइयाइया वा वयजीवाणिकाय भावणा पढमं ।
एसो धम्मोवाओ जिणेहि सव्वेहिं उवइट्ठो ।' जैन धर्म में धर्माराधनाभिलाषी जीवों के लिए छह प्रकार के आवश्यक कर्तव्यों की और निर्देश किया गया है। प्रत्येक श्रावक को ये आवश्यक कर्तव्य प्रतिदिन करना आवश्यक है। ये ‘आवश्यक' इस प्रकार हैं :
(१) सामायिक : राग और द्वेष के वश न होकर समभाव मध्यस्थ भाव में रहना अर्थात् सबके साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना ‘सामायिक' है।
(२) चतुर्विंशतिस्तव : चौबीस तीर्थंकर जो कि सर्वगुण सम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति करने रूप है । इसके (१) द्रव्य और (२) भाव, ये दो भेद हैं । पुष्प आदि सात्त्विक वस्तुओं के द्वारा तीर्थंकरों की पूजा करना 'द्रव्यस्तव' और उनके वास्तविक गुणों का कीर्तन करना भावस्तव' है। अधिकारी-विशेष गृहस्थ के लिए द्रव्यस्तव कितना लाभदायक है, इस बात को विस्तारपूर्वक आवश्यक नियुक्ति, पृ. ४९२-४९३ में दिखाया है ।
१. आवश्यक नि. २७१ २. आ. नि. गाथा १०३२ ३. आ. पृ. ४९२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org