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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १५९ २. शील के पालन से व्यक्ति की ख्याति या प्रतिष्ठा बढ़ती है। ३. सचरित्र व्यक्ति को कहीं भी भय और संकोच नहीं होता। .४. शीलवान सदैव ही अप्रमत्त चेतनावाला होता है और इसलिए उसके जीवन का अन्त भी जाग्रत चेतना की अवस्था में होता है। ५. शील के पालन से सुगति या स्वर्ग की प्राप्ति है। अष्टांग साधनापथ और शील बुद्ध के अष्टांग साधना पथ में सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव ये तीन शील - स्कन्ध हैं। यद्यपि मज्झिम निकाय और अभिधर्म कोश व्याख्या के अनुसार शील - स्कन्ध में उपर्युक्त तीनों अंगों का ही समावेश किया गया है लेकिन यदि हम शील को न केवल दैहिक वरन मानसिक भी मानते है तो हमें समाधि-स्कन्ध में से सम्यक् व्यायाम को और प्रज्ञास्कन्ध में से सम्यक् संकल्प को ही शील-स्कन्ध में समाहित करना पड़ेगा। क्योंकि संकल्प आचरण का चैतसिक आधार है और व्यायाम उसकी वृद्धि का प्रयत्न। अत: उन्हें शील - स्कन्ध में ही लेना चाहिए। ___ इस प्रकार जैन और बौद्ध साधना के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि ये दोनों साधनाएँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को लगभग समान महत्त्व प्रदान करती है। समाधि, विनय, तप आदि भी उनमें कुछ मिलते-जुलते हैं । बौद्ध साधना चूँकि जैन साधना से उत्तरकालीन है और बुद्ध ने चूँकि जैनसाधना का कुछ समय तक अनुगमन किया है इसलिए यह स्वाभाविक है कि बौद्ध साधना जैन साधना से प्रभावित रहे एवं अपेक्षाकृत व्यवस्थित प्रतीत हो। वैदिक परम्परा में शील या सदाचार : सम्यक् चारित्र को हिन्दु धर्म - सूत्रों में शील, सामयाचारिक, सदाचार या शिष्टाचार कहा गया है। गीता की निष्काम कर्म और सेवा की अवधारणाओं को भी सम्यक् चारित्र का पर्यायवाची माना जा सकता है। गीता जिस निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन करती है, वस्तुत: वह मात्र कर्तव्य बुद्धि से एवं कर्ताभाव का अभिमान त्याग कर किया गया ऐसा कर्म है, जिसमें फलाकाँक्षा नहीं होती । क्योंकि इस प्रकार का कर्म (आचरण) बन्धन कारक नहीं होता है अत: इसे अकर्म भी कहते हैं। उस आचरण को जो बन्धन हेतु न बनकर मुक्ति का हेतु होता है, जैन परम्परा में सम्यक् १. अर्ली मोनास्टिक बुद्धिज्म, पृ० १४२-४३ २. णाणम्मि दंसणम्मि य तेण चरिएण सम्मसहिएण। चउण्हपि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो ॥ षटप्राभत. १.३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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