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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
१५५ जाता है, जब कि औपशमिक चारित्र में मात्र वासनाओं का दमन होता है । वासनाओं का दमन
और वासनाओं के निरसन में जो अन्तर है, वही अन्तर औपशमिक और क्षायिक चारित्र में है। नैतिक साधना का लक्ष्य वासनाओं का दमन नहीं, वरन् उसका निरसन या परिष्कार है। अत: चारित्र का क्षायिक प्रकार ही नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है।
चारित्र के उपर्युक्त सभी प्रकार आत्मशोधन की प्रक्रियाएँ हैं। जो प्रक्रिया जितनी अधिक मात्रा में आत्मा को राग, द्वेष और मोह से निर्मल बनाती है, वासनाओं की आग से तप्त मानस को शीतल करती है और संकल्पों और विकल्पों के चंचल झंझावात से बचा कर चित्त को शान्ति एवं स्थिरता प्रदान करती है और सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में समत्व की संस्थापना रखती है, वह उतनी ही अधिक मात्रा में चारित्र के उज्जवलतम पक्ष को प्रस्तुत करती है।
बौद्ध दर्शन में सम्यक् चारित्र बौद्ध साधना उक्त जैन साधना के काफ़ी निकट है। उसमें शील, समाधि और प्रज्ञा की विवेचना है जिसमें शील और समाधि का अन्तर्भाव सम्यक् चारित्र में किया जा सकता है। प्राणातिपातादोहि से विरक्त रहने वाली मानसिक अवस्था को शील कहते हैं - पाणातिपातादोहि वा विरमन्तस्य वत्तपटिपत्तिं वा पूरेन्तस्स चेतनादयो धम्मा। बौद्ध परम्परा में निर्वाण की प्राप्ति के लिए शील को आवश्यक माना गया है । शील और श्रुत या आचरण और ज्ञान दोनों ही भिक्षु - जीवन के लिए आवश्यक है। उनमें भी शील अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। विशुद्धिमार्ग में कहा गया है कि यदि भिक्षु अल्पश्रुत भी होता है, किन्तु शीलवान है तो शील ही उसकी प्रशंसा का कारण है। उसके लिए श्रुत अपने आप पूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत यदि भिक्षु बहुश्रुत भी है किन्तु दुःशील है तो दुःशीलता उसकी निन्दा का कारण है और उसके लिए श्रुत भी सुखदायक नहीं होता है।
शील का अर्थ:
बौद्ध आचार्यों के अनुसार जिससे कुशल धर्मों का धारण होता है या जो कुशल धर्मों का आधार है, वह शील है। सद्गुणों के धारण या शीलन के कारण ही उसे शील कहते हैं। कुछ आचार्यों की दृष्टि से शिरार्थ शीलार्थ है, अर्थात् जिस प्रकार शिर के कट जाने पर मनुष्य मर जाता हैं। वैसे ही शील के भंग हो जाने पर सारा गुण रूपी शरीर ही विनष्ट हो जाता है। इसलिए शील को शिरार्थ कहा जाता हैं। १. विसुद्धिमग्ग, पृ.४ १. विसद्धिमग्ग. भाग १. प. ८६ ३. विसद्धिमग्ग. भाग - १. १०.८
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