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५. सम्यग्दर्शन के आठ आचार
सम्यक्त्व ही चारित्रधर्म का मूल आधार हैं। उसकी शुद्धि पर ही चारित्रबुद्धि अवलम्बित है । उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक् दर्शन की साधना के आठ अंगों का वर्णन है । आचरण करने योग्य आठ सम्यक्त्व के आचारों को भव्यात्माओं को आन्तरिक जीवन में ओतप्रोत कर लेना चाहिए। दर्शन विशुद्धि एवं उसके संवठ्ठन और संरक्षण के लिये इनका पालन आवश्यक है। आठ अंग इस प्रकार है :
(१) निश्शंकता :
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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
संशयशीलता का अभाव ही निश्शंकता है। जिनप्रणीत तत्त्वदर्शन में शंका नहीं करना, , उसे यथार्थ एवं सत्य मानना ही निश्शंकता हैं।' साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साध्य, साधक और साधनापथ तीनों पर अविचल श्रद्धा होनी चाहिए। साधक में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी संदेह उत्पन्न होता है, वह साधना से च्युत हो जाता है। यही कारण है कि जैन साधना निश्शंकता को आवश्यक मानती है। मूलाचार में निश्शकता को निर्भयता माना गया है। संशय और तत्पूर्वक परीक्षा का जैन तत्त्वज्ञान में पूर्ण स्थान होने पर भी यहाँ शंका को अतिचार कहने का अभिप्राय इतना ही है कि तर्कवाद से परे के पदार्थों को तर्कदृष्टि से कसने का प्रयत्न नहीं होना चाहिए। क्योंकि साधक श्रद्धागम्य प्रदेश को बुद्धिगम्य नहीं कर सकता, जिससे अन्त में वह बुद्धिगम्य प्रदेश को भी छोड़ देता है। अतः जिससे साधना के विकास में बाधा आती हो वैसी शंका अतिचार के रूप में त्याज्य है ।
जैसा कि शास्त्र का वाक्य है - "तमेवं सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं" वही सत्य निशंक है, जो जिनेश्वरों द्वारा प्रवचित है, ऐसा विश्वास बने । उसमें कुर्तक वितर्क नहीं करना, इससे वीतराग - वाणी के प्रति समर्पणा उत्पन्न होती है और अन्तर की शक्ति ऊर्ध्वगामी बनती है।
हमें धर्म करणी करते हुए उसके शुभ फल की प्राप्ति तत्काल यदि न भी हो, तो भी कभी भी जिनवचनों में, धर्म की अनन्त शक्ति में शंका नहीं करनी चाहिए। प्राप्त दुःख को निकाचित कर्मों का उपभोग समझकर अन्तरज्ञान के चक्षु उद्घाटित करते हुए कर्म फिलोसोफी का ज्ञान समकक्ष रखकर, शांत भावों से सहन करना चाहिए, ताकि पूर्व बद्ध कर्म निर्जरित हो जाएँगे और धर्मकरणी
१. आचारांग, ११५/५/६३
२. मूलाचार, २५२-५३
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