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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर सम्यक् दर्शन या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो उसे साधु ही समझो, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर चिर शांति को प्राप्त हो जाता है।
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गीता में श्रद्धा का अर्थ प्रमुख रूप से इश्वर के प्रति अनन्यनिष्ठा माना गया है जब कि जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ हैं। गीता यह मानती हैं कि नैतिक जीवन के • लिए संशय रहित होना आवश्यक हैं श्रद्धारहित यज्ञ, तप दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक माने गये हैं। गीता में स्वयं भगवान के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया हैं कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूटकर अन्त में मुझे ही प्राप्त होगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं भगवान ही वहन करते तै। ३ जैन बौद्ध दर्शन इसे स्वीकार नहीं करता।
आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी सम्यक्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि सम्यक्दर्शन निष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके, ऐसा कदापि संभव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शन युक्त पुरुष निश्चितरूप से निर्वाण लाभ करता है।
वस्तुतः सम्यक्दर्शन एक जीवनदृष्टि है यह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है। बिना जीवन दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता । व्यक्ति की जीवन दृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का निर्माण होता है। गीता में कहा है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है।' असम्यक् जीवनदृष्टि पतन की ओर और सम्यक् जीवनदृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है इसलिए यथार्थ जीवनदृष्टि का निर्माण आवश्यक है। हमारे चरित्र और व्यक्ति का निर्माण इसी जीवनदृष्टि से होता है। इसे ही भारतीय परम्परा में सभ्यग्दर्शन या श्रद्धा कहा गया है।
४. बौद्ध दर्शन में सम्यक् दर्शन
बौद्ध दर्शन में भी जैन और वैदिक दर्शन की तरह सम्यक् दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बौद्धधर्म में सम्यग्दर्शन के ही समानान्तर में सम्मादिट्टि को स्वीकार किया गया है। चतुरार्यसत्यों का समझना ही सम्मादिट्टि है। उसके बिना मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं। भगवान बुद्ध ने कहा था "मिक्षुओं ! जिस समय आर्य श्रावक दुराचरण को पहचान लेता है, दुराचरण के मूल कारणो को
१. गीता, २० - ३१, २. गीता, १७/१३,
५. गीता, १७/३
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३. गीता १८/६५-६६
४. गीता ( शं०) १८/१२.
६. सम्मादिट्टि सुत्तन्तु (मज्मिम १.१.),
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