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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
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प्रकाशमान है, वहाँ पर क्या कर्म ठहर सकते हैं ? अर्थात् शीघ्र ही निजीर्ण हो जाते हैं ?
आचार्य सकलकीर्ति ने लिखा है कि सम्यक्त्व के बिना व्रत- तपादि से मोक्ष नहीं मिलता । गुपभूषणने भी समन्तभद्रादि के समान सम्यक्त्व का वर्णन कर अन्त में कहा है कि जिसके केवल सम्यक्त्व ही उत्पन्न हो जाता है, उसका नीचे के छह नरकों में, भवत्रिक देवों में, स्त्रियों में कर्मभूमिज तिर्यचों एवं दीनदरिद्री मनुष्यों में जन्म नहीं होता ।
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उमास्वाति - 'श्रावकाचार' में रत्नकरण्डक, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि पूर्वरचित श्रावकचारों अनुसार ही सम्यग्दर्शन, उसके अंगो का भेद, महिमा आदि का वर्णन करते हुए लिखा है. कि... ह्दयस्थित सम्यक्त्व नि:शंकितादी आठ अंगो से जाना जाता है। इस श्रावकाचार में प्रशम, संवेग आदि गुणों के स्वरूप का विशद वर्णन किया गया है और अन्त में लिखा है कि जिसके हृदय में इन आठ गुणों से युक्त सम्यक्त्व स्थित है, उसके घर में निरन्तर निर्मल लक्ष्मी निवास करती है।
पूज्यपाद श्रावकाचार में कहा है कि जैसे भवन का मूल आधार नींव है उसी प्रकार सर्व व्रतों का मूल आधार सम्यक्त्व है। व्रतसार श्रावकाचार में भी यही कहा है। व्रतोद्योतन श्रावकाचार में कहा है कि सभ्य दर्शन के बिना व्रत, समिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र धारण करना निरर्थक है। श्रावकाचारसारोद्धार में तो रत्नकरण्डक ने अनेक श्लोक उद्धत करके कहा है कि एक भी अंग से हीन सम्यक्त्व जन्मसन्तति के छेदने में समर्थ नहीं है। पुरुषार्थीनुशासन में कहा है कि सम्यक्त्व के बिना दीर्घकाल तक तपश्चरण करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। इस प्रकार सभी श्रावकाचारों में सम्यक्त्व की जो महिमा का वर्णन किया गया है उस पर रत्नकरण्डक का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
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सम्यग्दर्शन की महिमा को प्रकट करने के लिए उत्तराध्ययन में सूत्रकार कहते है।
मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजह |
न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्धइ सोलसिं ॥ १
जो जीव बाल है, मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, वह प्रत्येक मास में कुश के अग्रभाग पर जितना आहार ठहरता है, उतना ही खाकर रह जाए तब भी वह जिनोक्त धर्म का आचरण करने वाले पुरुष 'के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं होता ।
१. उत्तराध्ययन अ. ६ गाथा ४४
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