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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
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होकर भी किसी आकाशीय देशविशेष का अवगाहन न करे। जब प्रत्येक द्रव्य आकाश के देश - विशेष का अवगाहन करता है, तब आत्मा भी एक द्रव्य होने के कारण अनन्त आकाश के किसी न - किसी असंख्यात प्रदेशात्मक देश विशेष का अवगाहन अवश्य ही करेगा । आत्म- द्रव्य जिस किसी भी आकाश-देश में स्थित है, वही उसका स्थान है और वही उसका धाम है। आत्मा एक द्रव्य है, इसी आधार पर उसका एक स्थान विशेष भी है । किन्तु मोक्ष द्रव्य नहीं है, वह आत्मा का निज स्वरूप है। अतएव मोक्ष आत्मा का स्थान - विशेष नहीं है, बल्कि मोक्ष
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आत्मा की स्थिति - विशेष है। जिस द्रव्य का जो स्वरूप है, वह स्वरूप अपने आधारभूत द्रव्य से अलग कैसे हो सकता है ? आत्मा पृथक् रहे और उसका स्वरूप मोक्ष उससे कहीं दूर अन्य जड़ द्रव्य में अटका रहे - यह संभव नहीं है न यह शास्त्र सम्मत है और न यह अनुभवगम्य ही है। मोक्ष और आत्मा के पार्थक्य - भाव की कल्पना नहीं की जा सकती। जैसे अग्नि से अलग उष्णता की कल्पना नहीं की जा सकती।
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क्योंकि अनि एक द्रव्य है और उष्णता उसका स्वरूप है, अग्नि धर्मी है और उष्णता उसका धर्म है। धर्म बिना धर्मी के नहीं रह सकता। जहाँ पर धर्मी रहता है, वहीं पर उसका धर्म भी अवश्य रहेगा। अग्नि कहीं पर भी क्यों न रहे, अपने निजी सौम्य रुप में अपनी उष्णता के साथ, उसमें किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु इतना निश्चित है कि अग्नि का स्वरूप उष्णता अनि में ही रहेगा, कहीं बाहर नहीं। यही बात और यही तर्क आत्मा और मोक्ष के सम्बन्ध में भी है । आत्मा द्रव्य है, और मोक्ष उसका स्वरूप है, आत्मा धर्मी है और मोक्ष उसका धर्म है। अतः जहाँ आत्मा है उसका मोक्ष भी वहीं रहेगा। जब कि मोक्ष, आत्मा का स्वरूप है, तब वह आत्मा से बाहर अन्यत्र कहाँ रह सकता है ? इस दृष्टि से जब मोक्ष को आत्मा का शुद्ध स्वरूप मान लिया गया है, तब वह शुद्ध स्वरूप अपने स्वरूपी से अलग एवं पृथक् कैसे हो सकते है, और भिन्न भी कैसे किया जा सकता है ? इसमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जब कोई अनुभवी संत अथवा शास्त्र सिद्ध-लोक, सिद्ध-शिला और सिद्ध धाम का वर्णन अथवा कथन करता है, तब वह यह बताता है, कि व्यवहार दृष्टि से यह सब कुछ आत्मरूप द्रव्य का ही स्थान विशेष है मोक्ष का स्थान - विशेष नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो उसका निज स्वरूप ही है और जो स्वरूप होता है, वह कभी अपने स्वरूपी से भिन्न नहीं हो सकता। अस्तु ।
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जहाँ आत्मा है वहीं उसका मोक्ष है और जहाँ आत्मा है वही उसका मार्ग भी है। जैन - दर्शन में मोक्ष के मार्ग की धारणा एवं विचारणा आत्मा से बाहर कहीं अन्यंत्र नहीं की गई है। निश्चय दृष्टि का सिद्धान्त यह है कि कारण और कार्य को एक स्थान पर रहना चाहिए। यदि कारण कहीं रहे और कार्य उससे दूर कहीं अन्यत्र रहे, तब वह कार्यकारण भाव कैसे होगा ? दृस्थ कारण
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