________________
११४
समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि आत्मविकास होता है।
समत्वयोग में उपासना से परमात्मा के साथ आत्मा की भावात्मक एकता हो जाती है, जिससे परमात्मा से सम्बद्ध होकर वह प्रकाशमान रहती है। परमात्मा के साथ भावात्मक एकता, श्रद्धा, निष्ठा एवं समीपता जितनी स्पष्ट एवं तीव्र होगी, उसी अनुपात में उपासना मुखर होगी और प्रतिफल उतना ही उत्साहवर्द्धक होगा। अतः उपासना के द्वारा परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करके समतायोग में अविचल, निश्चिन्त, सोत्साह, नि:शंक एवं निर्विघ्न होकर प्रगति की जाए । परमात्मा की उपासना में समतायोगी साधक को अनिर्वचनीय आनन्द आना चाहिए। उपासक के मन में यह सुदृढ़ आस्था जमी होनी चाहिए कि परमात्मा उसके चारों ओर व्याप्त है, उसकी हर गुप्त गतिविधि को वह देख रहे हैं। यह तथ्य हृदयंगम कर लेने पर सर्वप्रथम अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र में आत्मा और मन का परिष्कार करने की आवश्यकता महसूस होती है । इस प्रकार निर्मल, निष्पाप होने पर आत्मा परमात्मा से मित्रता करने योग्य हो जाती है।
सामायिक पाठ में आत्मशुद्धि के बाद १२वें श्लोक से लेकर २१वें श्लोक तक समतायोग में प्रगति और प्रोत्साहन के लिए वीतराग परमात्मा की उपासना का क्रम बताया गया है। (द) साधना
उपासना के बाद समत्वयोग का चतुर्थ स्तम्भ साधना है । यह एक भ्रान्ति होगी कि परमात्मा की उपासना करने मात्र से सब पाप कट जायेंगे, विषमताएँ मिट जायेंगी और परमात्मा प्रसन्न हो जायेंगे । लेकिन समत्व की साधना किये बिना आत्मा का पूर्ण विकास नहीं होगा । उपासना के साथ साधना का होना जरूरी है। दोनों आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं और एक-दूसरे के पूरक हैं; दोनों अन्योन्याश्रित हैं।
जितना महत्त्व उपासना का है, उतना ही साधना का है। समतायोगी को उपासना के साथ-साथ साधना पर भी ध्यान देना पड़ता है। अपनी सम्यक् दृष्टि, ज्ञान और चारित्र के द्वारा समतायोग को उत्कृष्ट बनाने के लिए, आत्मा को पवित्रशुद्ध, निर्दोष एवं संयत तथा उत्कृष्ट एवं आदर्श बनाने के लिए तथा आत्मनिर्माण, आत्मनिश्चय और आत्मसमाधि को उच्च स्तरीय बनाने के लिए सतत प्रयत्न करना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org