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समत्वयोग का आधार - शान्त रस तथा भावनाएँ
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आत्मौपम्य की भावना लेकर जब चलता है, तब उसके समक्ष स्त्री-पुरुष, कालागोरा, स्वदेशी-परदेशी, स्वजातीय- परजातीय, स्वसम्प्रदायी - परसम्प्रदायी, स्वराष्ट्रीयपरराष्ट्रीय, स्वप्रान्तीय - परप्रान्तीय आदि किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं रहता । उसकी करुणाधारा सभी के लिए समानरूप से बहती है । 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' मूलमंत्र को लेकर चलने वाले समतायोगी के हृदय के द्वार अपने-पराये का भेदभाव नहीं करते, स्वत्वमोह उसे छू नहीं सकता। ऐसे करुणाशील साधक तो अपने विरोधी माने जाने वाले को भी विपत्ति में देखकर करुणार्द्र हो उठते हैं और उसकी सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं ।
जिसके हृदय में सच्ची करुणा है, वह दूसरों को अपने कुटुम्बीजन की तरह प्यार, आत्मीयता और बन्धुता की दृष्टि से ही देखेगा। करुणा के भावात्मक रूप को व्यक्त करते हुए ह्विटमेन ने एक जगह लिखा था "मुझे किसी पीड़ित मनुष्य से यह पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि वह अपने में क्या अनुभव कर रहा है या उसे कैसा लग रहा है ? बल्कि मैं स्वयं उसी की भाँति पीड़ित हो उठता हूँ और उसकी वेदना को अपने अन्दर महसूस करने लगता हूँ ।"
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दूसरी बात यह है कि सच्ची करुणा बदला नहीं चाहती । यदि आपने किसी रोगग्रस्त, क्षुधापीड़ित, या किसी अभाव या दुःख से पीड़ित एवं व्यथित के प्रति करुणार्द्र होकर सहायता की, उसका दुःख निवारण करने का प्रयत्न किया तो इससे आपको बदले में आत्मसन्तोष, या प्रसन्नता मिली। आपने उसे अपनी सेवा से आत्मीय बना लिया, अथवा उसमें अज्ञानवश प्रविष्ट दुर्व्यसनों का त्याग करा दिया, इतना पुण्यलाभ आपको मिला, यही क्या कम है ? इसके अतिरिक्त आपमें आत्मौपम्य सिद्धान्त का पालन करने की शक्ति प्राप्त हुई, तथैव आत्मा में करुणागुण का विकास हुआ, यह लाभ क्या कम है ? इस पर भी यदि आप पीड़ित और दुःखित से प्रतिदान चाहें तो यह सौदेबाजी होगी, करुणा के वास्तविक फल को अपने हाथों से खो देना होगा ।
सहानुभूति करुणा की बहन हैं। वह जीवन की महती भावनाशक्ति है, जो कोमलता, सरलता और आत्मानुभूति के अध्यात्म लक्ष्य तक आसानी से पहुँचा देती है । सहानुभूति का निर्माण संवेदना, दया, प्रेम, करुणा आदि हृदयस्थ भावों के सम्मिश्रण से होता है । यह गुण मानवता का एक विशेष लक्षण रूप है। दूसरे की वेदना को अनुभव कर सकना, दुःख से करुणार्द्र हो जाना मानवभावना के ही
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