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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ जीवों के प्रति मैत्रीभावना, गुणीजनो के प्रति प्रमोदभावना, दुखित-पीड़ित जनों के प्रति कारुण्यभावना और विरोधीजनों के प्रति माध्यस्थ्य भावना के द्वारा समतायोगी साधक अपने चित्त को निर्मल स्वच्छ बनाकर व्यावहारिक क्षेत्र में समता की सफलतापूर्वक साधना कर सकता है ।।
परहित-चिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा ।
परसुखतुष्ठिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ इन चार भावनाओं का संक्षिप्त स्वरूप बताते हुए आचार्य अमितगति कहते हैं -
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥
जैसे कि गीता में भी मैत्री आदि भावनाओं के अनुरूप आत्मौपम्य की बात कही है ..
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
जो साधक आत्मवत्भाव से सभी प्राणियों के सुख-दुःख को आत्मसम देखता है वही समतायोगी माना गया है ।
सामायिकं सर्वजीवेषु समत्वम् ।। इन चार भावनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है : (९) मैत्रीभावना :
संसार के समस्त प्राणियों के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम-भाव रखना; अपनी आत्मा के समान ही सब को सुख दुःख की अनुभूति करने वाले समझना, मैत्री भावना है । जिस प्रकार मनुष्य अपने किसी विशिष्ट मित्र की हमेशा भलाई चाहता
१. आचार्य श्री हरिभद्रसूरि विरचित षोडषक प्रकरण चतुर्थ पोडषक श्लो - १५ २. आचार्य अमितगतिः - परमात्मा ज्ञात्रिशिका । ३. श्रीमद् भगवद्गीता ६.३२ । ४. भाव पाहुड
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