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96. समिति- मुनि के लिये सावधानीपूर्वक करने योग्य पांच कार्य समिति
कहलाते हैं- 1- ईर्या, 2- भाषा, 3- ऐषणा, 4- आदान निक्षेपण, 5
प्रतिष्ठापन। 97. समुद्घात- केवलज्ञानी जीव की जब आयु अल्प शेष रह जाती है तथा
नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म अधिक होते हैं तब उसकी आत्मा के प्रदेश मूल शरीर को न छोड़कर फैलकर बाहर निकल जाते हैं, यही समुद्धात
98. सम्यग्दृष्टि- वह प्राणी जिसे सम्यग्दर्शन हो चुका हो। 99. सप्तभंगी- जब हम कोई भी कथन करते हैं तो किसी अपेक्षा से करते
हैं। कथन के अधिक से अधिक सात प्रकार हो सकते हैं, इन्हें ही सप्तभंगी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं- 1- अस्ति, 2- नास्ति, 3- अस्तिनास्ति,
4- अवक्तव्य, 5- स्यात्अस्ति, 6- स्यात् नास्ति, 7- स्यात् अस्तिनास्ति। 100. स्कंध- दो या दो से अधिक अनन्तानंत परमाणुओं के परस्पर बंध को
स्कंध कहते हैं। 101. स्थावर- स्पर्शनेन्द्रिय सहित पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति-कायिक
एकेन्द्रिय जीव। 102. सिद्ध- जिस आत्मा के आठों कर्म नष्ट हो गये हो तथा आठ गुण प्रकट
हो गये हों, वह शरीर रहित मुक्त आत्मा सिद्ध कहलाती है। 103. सिद्ध शिला- लोकाकाश का अग्रभाग जहाँ मुक्ति के पश्चात् आत्माएं
अनन्त काल तक रहती हैं।
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