________________
अनुभो बतायवेको जीव के जतायवे को,
काहु न सतायवे को भव्य उर आनी है।। जहां तहां तारवे को पारके उतारवे को,
सुख विस्तारवे को यहै जिनवानी है।।''58 भैया भगवतीदास मानव को सम्यक् आचरण करने का संदेश देते हुए कहते हैं"पापपरिणाम त्याग हिंसातें निकसि भाग,
धर्म के पंथ लाग दयादान कररे।। श्रावक के व्रत पाल ग्रंथन के भेद पाल,
लगै दोष ताहि टाल अधनिको हररे।। पंच महाव्रतधरि पंच हू समिति करि,
तीनहु गुपति वरि तेरह भेद चररे।। कहै सर्वज्ञ देव चारित्र व्योहार भेव,
लहि ऐसा शीघ्रमेव बेग क्यों न तररे।।"59 जब जीव षट द्रव्य तथा सात तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो 'स्व' और 'पर' का अन्तर स्वतः ही मान लेता है और ऐसा होते ही मिथ्यात्व का अंधकार छंटने लगता है और सम्यक्त्व का प्रकाश विकीर्ण होने लगता है।
संसार से रागद्वेष छूटने लगता है और हृदय में शीतलता का प्रसार होने लगता है, ये ही जीव सम्यक् दृष्टि कहलाते हैं।
कविवर भैया भगवतीदास ने सम्यग्दृष्टि की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है"स्वरूप रिझवारे से, सुगुण मतवारे से,
सुधा के सुधारे से, सुप्राण दयावंत है।। सुबुद्धि के अथाह से, सुरिद्धपातशाह से,
सुमनके सनाह से, महाबठे महंत है।। सुध्यान के धरैया से, सुज्ञान के करैया से,
सुप्राण परखैया से शकती अनंत हैं।। सवै संघनायक से सर्व बोललायक से,
सवै सुखदायक से सम्यक् के संत है।।''60 इस प्रकार भैया भगवतीदास ने अपनी रचनाओं में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व की विस्तृत व्याख्या की है। उन्होंने इन पर सैद्धान्तिक दृष्टि की
(194)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org