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सभ्यता के आदिकाल से ही भारत में ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति की धाराएं समानान्तर रूप से प्रवाहित हो रही हैं। भारतीय संस्कृति के निर्माण में जैन परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैनाचार्यों द्वारा सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदि सभी भाषाओं में रचित साहित्य बहुत विशाल है। खेद का विषय है कि साहित्य के इतिहास लेखक तथा विद्वान साम्प्रदायिक कह कर जैन साहित्य की काफी समय तक उपेक्षा करते रहे। किन्तु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने शोध-ग्रंथ 'हिन्दी साहित्य का आदि काल' में जोरदार शब्दों में इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए लिखा 'केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रंथों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदिकाव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दंडवत कर विदा कर देना होगा।'
भैया भगवतीदास ईसा की सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एक आध्यात्मिक जैन संत और भक्त कवि हुए हैं। उनके अन्तर से ज्ञान, भक्ति और काव्य की पृथुल धारा प्रवाहित होती रही। धर्म की कठिन साधना को उन्होंने कथा-कहानी का रूप देकर आकर्षक रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वैसे ही जैसे औषधि की कटुतिक्त गोलियों को चीनी से आवेष्टित कर दिया जाता है।
काव्य सृजन के समय के अनुसार भैया भगवतीदास हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के अन्तर्गत आते हैं, किन्तु मनः प्रवृति से हम उन्हें संत और भक्त कवियों के निकट ही पाते हैं। विद्वानों ने रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में विभाजित किया है- रीतिसिद्ध, रीतिबद्ध और रीतिमुक्त कवि। इस दृष्टि से भैया भगवतीदास का स्थान रीतिमक्त कवियों में निर्धारित होता है, किन्तु तब भी उनके प्रति पूर्ण न्याय नहीं होगा। आवश्यकता इस बात की है कि हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने वाले नये लेखक 'रीतिकाल के भक्त और संत कवि' नाम का पृथक वर्ग बनाएं जिसमें ब्रह्म में विलास कराने वाले काव्य के रचयिताओं को समासीन किया जा सके।
'भैया भगवती दास और उनका साहित्य अनेक दृष्टियों से अप्रतिम है। इसमें एक विस्मृतप्राय कवि एवं भक्त की कीर्ति रक्षा का स्तुत्य प्रयास किया गया है।
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