________________
प्रगट होत परमात्मा, भैया सुगम उपाय।।"
जीव को शरीर आदि पुद्गल द्रव्य से जो राग होता है उसी राग के कारण जीव अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाता। कवि भैया इसे एक रूपक द्वारा सरलता से स्पष्ट कर देते हैं
"जो परमात्मा सिद्ध में, सो ही या तन माहिं। मोह मैल दृगि लगि रह्यो, तातें सूझे नाहिं।।"
यदि मानव का हृदय लोभ, मान, माया, क्रोध कषायों से रहित, नितान्त स्वच्छ वीतरागी होता है तो कर्मपरमाणु मेघों के समान गरज-गरजकर बिना वर्षा किए ही चले जाते हैं, कवि के शब्दों में
"संसारी जीवन के करमन को बंध होय,
__ मोह को निमित्त पाय राग द्वेष रंग सौं वीतराग देव पै न रागद्वेष मोह कहूँ,
ताही तै अबंध कहे कर्म के प्रसंग सो। पुग्गल की क्रिया रही पुग्गल के खेतबी,
आपही ते चले धुनि अपनी उमंग सों। जैसे मेघ परै बिनु आप निज काज करै।
गर्जि वर्षि झूम आवै शकति सछंग सो।''37 ये आस्रव और बंध ही संसार का कारण हैं। इनसे एक बार बंध जाने पर फिर मुक्ति पाना कठिन है। जिस प्रकार के कर्मों का बंध होता है उनके उदय होने पर जीव फिर उसी प्रकार के रागद्वेष आदि भावों को धारण कर लेता है और इस प्रकार फिर नवीन कर्मों का बंधन हो जाता है और यही संसार का चक्र है। इस तथ्य को कवि 'भैया' ने रागादि निर्णयाष्टक में अत्यंत स्पष्टता से बताया है
"राग रू द्वेष मोह की परणति, लगो अनादि जीव कहं दोय। तिनको निमित्त पाय परमाणु, बंध होय वसु भेदहिं सोय।। तिन होय देह अरू इन्द्रिय, तहां विष रस भुंजत लोय। तिनमें रागद्वेष जो उपजत, तिहं संसारचक्र फिर होय।।"
आचार्य उमास्वाति ने बंध के पाँच हेतु बताये हैं
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। आत्मतत्व या अपने स्वरूप के सम्बन्ध में मिथ्याधारणा ही मिथ्यादर्शन है।
(177)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org