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उवभोगो य पुणो पुण, उवभुज्जइ भवणविलियाई ॥ बलवं रोगविउत्तो, वयसपण्णो वि जस्स उदएणं । विरिण होइ हीणो, वीरियविग्धं तु पंचमयं ॥ १६६ ॥ एवं पंचवियपं, मयं तराइयं होइ । भणिओ कम्मविवागो समास गग्गरिसिणा उ ॥
एय गाहाण सय, अहिय छावट्टिए उ पढिउणं । जो गुरु पुच्छर नाही, कम्मविवागं च सो इरा ॥ १६८
॥ इति महर्षि गर्गर्षिप्रणीतः कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रंथः ॥
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