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जह राया इह भंडारिएण विणिएण कुणइ दाणाई। तेण उ पडिकूलेणं, न कुणइ सो दाणमाईणि॥१५७॥ जह राया तह जीवो, भंडारी जह तहंतरायं च । तेण उ विबन्धएणं, न कुणइ सो दाणमाईणि ॥१५८॥ तं दाणलाभभोगोवभोगविरियंतराय पंचमयं ।। एएसिं तु विवाग, वोच्छामि अहाणुपुवीए ।।१५९॥
सइ फासुयंमि दाणे, दाणफलं तहय बुज्झई अउलं । __बंभच्चेराइजुयं, पत्तपि य विज्जए तत्थ ॥ १६० ॥
दाउं नवरि न सकइ, दाणविधायस्स कम्मणो उदए।
दाणंतरायमेय, लाभे वि य भण्णए विग्धं ॥ १६१ ॥ __ जइ वि पसिद्धो दाया, जायणनिउणो वि जायगो जइ वि
न लहइ जस्सुदएणं एवं पुण लाभविग्धं तु ॥१६२॥ मणुयत्ने वि य पत्ते, लद्धे वि हु भोगसाहणे विभवे । भुत्तु नवरि न सका, विरइविहूणो वि जस्सुदए ॥१६३ भोगस्स विग्धमेयं, उवभोगे आवि विग्यमेवेव।। भोगुवभोगाणेसिं, नवरि विसेसो इमो होइ ॥१६४॥ सइ भुजइ त्ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईयो ।
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