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(२४१)
॥ इति रससंक्रमः ॥ विज्झाउव्वलणअहापवन्तगुणसव्वसंकमेहि
अणू | जन्ने अण्णपगई पएससंकामणं एयं ॥ ६८ ॥ जाणं न बन्धो जायइ आसज्ज गुणं भवं व पगईणं । विज्झाओ ताणगुलअसंखभागेण अन्नत्थ || ६९ ॥ पलियस्सऽसंखभागं अंतमुहुत्तेण ठिईए उव्वलइ । एवं पलिया संखियभागेणं कुणइ निल्लेवं ॥ ७० ॥ पढमा बीखंड विसेसही ठिईए अवणेइ । एवं जाव दुरिमं असंखगुणियं तु अंतिमयं ॥ ७१ ॥ खंडदलं सट्टा समए समए असंखगुणणाए । सेढीए परठाणे विसेसहीणाए संतुभइ ॥ ७२॥ दुचरिमखंडस्स दलं चरिमे जं देइ सपरठाणम्मि । तम्माणेणस्स दलं पल्लंगुल संख भागेहिं ॥ ७३ ॥ एवं उब्वलणासकमेण णासेइ अविरो हार । सम्मोऽणमिच्छमीसे छत्तीस नियहि जा माया ॥७४॥ सम्ममीसाई मिच्छो सुरदुगवे उचिछक्कमेगिंदी | सुहुमतसुच्च मणुदुगं अंतमुहुतेण अनिट्टी ॥ ७५ ॥
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