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________________ जलस्थलसमुद्भूताः, संत्यज्य सुमनः स्रजः । तव निःश्वाससौरभ्य - मनुयान्ति मधुव्रताः ॥७॥ जल-थल में उत्पन्न पुष्प-मालाओं का त्याग करके भौंरे आपके निःश्वास की सौरभ लेने के लिये आपके पीछे आते हैं । (७) लोकोत्तरचमत्कार - करी तव भवस्थितिः । यतो नाहारनीहारौ, गौचरश्चर्मचक्षुषाम् ॥८॥ प्रापका संसार में निवास लोकोत्तर चमत्कार (अपूर्व पाश्चर्य) उत्पन्न करने वाला है, क्योंकि आपके आहार एवं नीहार चर्म-चक्षु वालों के लिये अगोचर हैं, अदृश्य हैं। (८) तोसरा प्रकाश सर्वाभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकृन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्वमानन्दयसि यत्प्रजाः ॥१॥ हे नाथ ! तीर्थंकर नामकर्म जनित “सर्वाभिमुख्य'' नामक अतिशय से, केवल-ज्ञान के प्रकाश से सर्वथा समस्त दिशाओं में सम्मुख रहने वाले आप देव, मनुष्य आदि समस्त प्रजा को समस्त प्रकार से आनन्द प्रदान करते हैं । (१) यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसमनि । संमान्ति कोटिशस्तिर्यग्नदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥ धर्मदेशना की एक योजन भूमि में अपने-अपने परिवार सहित करोड़ों तिर्यंच, मनुष्य एवं देवता समाविष्ट हो जाते हैं। (२) तेषामेव स्वस्वभाषा - परिणाममनोहरम् । अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ॥३॥ अपनी-अपनी भाषा में एक समान ज्ञात हो जाने से आपके मनोहर वचन उन्हें धर्म का बोध कराने वाले हैं । (३) साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्नाः गदाम्बुदाः ।। यदजसा विलोयन्ते, त्वद्विहारानिलोमिभिः ॥४॥ जिन भक्ति ] [ 73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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