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विकार आदि पाप कर्म मुझे अकरणीय प्रवृत्तियों में अत्यन्त लगा देते हैं। (११)
भद्रं न कि त्वय्यपि नाथनाथे,
सम्भाव्यते मे यदपि स्मराद्याः । अपाक्रियन्ते शुभभावनाभिः,
पृष्ठि न मुञ्चन्ति तथापि पापाः ॥१२॥ आपके तुल्य स्वामी के होने से मेरे लिए समस्त कल्याण संभव हैं। यद्यपि शुभ भावनाओं के द्वारा काम-विकार आदि शत्रु दूर हटाये जाते हैं, फिर भी वे पापी मेरा आँचल नहीं छोड़ते । (१२)
भवाम्बुराशौ भ्रमतः कदापि,
मन्ये न मे लोचनगोचरोऽभूः । निस्सीमसोमन्तकनारकादि
दुःखातिथित्वं कथमन्यथेश ! ॥१३॥ हे ईश ! मै यह मानता हूँ कि भव-सागर में परिभ्रमण करते मुझे आपके दर्शन कदापि नहीं हुए, अन्यथा असीम दु:खों की खान स्वरूप सीमंतक नारकीय दुःखों आदि का भोक्ता मैं कैसे होता ? (१३)
चक्रासिचापाकुशवज्रमुख्यैः,
सल्लक्षणैर्लक्षितमलियुग्मम् । नाथ ! त्वदीयं शरणं गतोऽस्मि,
दुर्वारमोहादिविपक्षभीतः ॥१४॥ हे नाथ ! दुःख से निवारण किए जा सकें ऐसे मोह आदि शत्रुओं से भयभीत बना मैं चक्र, तलवार, धनुष, वज्र आदि प्रमुख शुभ लक्षणों से अलंकृत आपके चरण-युगलों की शरण में आया हुआ हूँ। (१४)
अगण्यकारुण्य ! शरण्य ! पुण्य !
सर्वज्ञ ! निष्कण्टक ! विश्वनाथ ! दीनं हताशं शरणागतं च,
मां रक्ष रक्ष स्मरभिल्लभल्लैः ॥१५॥ हे अगणित करुणानिधान ! हे शरण लेने योग्य ! हे पवित्र ! हे सर्वज्ञ ! हे निष्कण्टक ! हे जगन्नाथ ! मुझ दीन, हताश, एवं शरणागत की काम-देव रूपी भील के भालों से रक्षा करो, रक्षा करो। (१५) 54 ]
[ निज भक्ति
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