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________________ हे भगवन् ! हितकर उपदेशक होने से, सर्वज्ञ कथित होने से, मुमुक्षु एवं उत्तम साधु पुरुषों द्वारा अंगीकार किए होने से और पूर्वापर पदार्थों के सम्बन्ध में विरोध रहित होने से आपके आगम ही सत्पुरुषों के लिये प्रमाण हैं । (११) क्षिप्येत वान्यैः सदृशोक्रियेत वा, तवांध्रिपीठे लुठनं सुरेशितुः । इदं यथावस्थितवस्तुदेशनं, परैः कथंकारमपाकरिष्यते ॥१२॥ हे जिनेश्वर ! अन्य वाद वाले आपके चरण कमलों में इन्द्र के नमस्कार की बात चाहे न माने अथवा अपने इष्ट देवों में भी उनकी कल्पना करके चाहे आपको समानता करें, परन्तु वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन रूप आपके गुरण का अपलाप वे किस प्रकार करेंगे ? (१२) तदुःषमाकालखलायितं वा, पचेलिमं कर्म भवानुकूलम् । उपेक्षते यत्तव शासनार्थ __मयं जनो विप्रतिपद्यते वा ॥१३॥ हे भगवन् ! जो मनुष्य आपके शासन की उपेक्षा करते हैं अथवा उसमें विवाद करते हैं वे इस पांचवें पारे के कुप्रभाव से ही ऐसा करते हैं अथवा भव-परिभ्रमण के अनुकूल उनके अशुभ कर्मों का उदय समझना चाहिये । (१३) परः सहस्राः शरदस्तपांसि. युगान्तरं योगमुपासतां वा। तथापि ते मार्गमनापतन्तो, न मोक्ष्यमाणा अपि यान्ति मोक्षम् ॥१४॥ हे भगवन् ! चाहे अन्य मतावलम्बी हजारों वर्षों तक तप करें अथवा युगान्तर तक योग का अभ्यास करें, तो भी उनकी मोक्ष की इच्छा होने पर भी आपके मार्ग का अवलम्बन लिये बिना उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। (१४) जिन भक्ति ] [ 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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