SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होही मोहुच्छेप्रो, तुह सेवाए धुव त्ति नंदामि । जं पुरण न वंदिअन्वो, तत्थ तुमं तेग झिज्जामि ॥३५॥ (भविष्यति मोहोच्छेदस्तव सेवया ध्र व इति नन्दामि । यत् पुनर्न वन्दितव्यस्तत्र त्वं तेन क्षीये ॥) आपकी सेवा में मेरा मोह अवश्य नष्ट होगा, इस बात का मुझे हर्ष है, परन्तु (मोहोच्छेद होने पर मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा और केवलज्ञानी केवलज्ञानी को नमन नहीं करता यह नियम होने से मुझ पर अनुपम उपकार करने वाले) आपको भी मैं वन्दन नहीं कर सकगा, अतः मैं क्षीण हो रहा हूँ, शोकाकुल हो रहा हूँ। (३५) जा तुह सेवाविमुहस्स, हुतु मा ताउ मह समिद्धोश्रो । अहिसारसंपया इव, परंतविडंबणफलानो ॥३६॥ (यास्त व सेवाविमुखस्य भवन्तु मा ता मम समृद्धयः । अधिकारसंपद इव पर्यन्त विडम्बनफलाः ॥) __अन्त में विडम्बना स्वरूप फलदायक राज्याधिकार की सम्पत्तियों के समान सम्पत्ति आपकी सेवा से विमुख (सर्वथा जिन-धर्म से रहित प्रथम गुण स्थान पर रहने वाले मनुष्य प्रादि) को होती हैं, वे सम्पत्ति मुझे प्राप्त न हों। (३६) भित्तूण तमं दीवो, देव ! पयत्थे जस्स पयडेइ । तुह पुरण विवरीयमिणं, जईक्कदीवस्स निव्वडिनं ॥३७॥ (भित्वा तमो दोपो देव ! पदार्थान् जनस्य प्रकटयति । तव पुनविपरोतमिदं जगदेकदोपस्य निष्पन्नम् ॥) हे देव ! दीपक अंधकार को भेद कर मनुष्य को पदार्थ देखने में सहायता करता है, परन्तु विश्व के अद्वितीय दीपक स्वरूप आपका यह (दीपक कार्य) तो विपरीत है, क्योंकि आप तो प्रथम उपदेश रूपी किरण के द्वारा भव्य जीवों को जीव-अजीव आदि पदार्थों का बोध कराते हैं, और तत्पश्चात् उस प्रकार उन्हें यथार्थ ज्ञान देकर उनके अज्ञान रूपी अंधकार का अन्त करते हैं।) (३७) जिन भक्ति ] [ 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy