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________________ हे भगवन् ! जिसमें प्रबल कषाय रूप चोर बसते हैं ऐसे भव-वन में भयभीत जीवों को तलवार, चक्र एवं धनुष रूपी रेखाओं से सदा लांछित आपके ही चरण शरण स्वरूप हैं। (२८) तुह समयसरब्भट्ठा, भमंति सयलासु रुक्खजाईसु । साररिजलं व जीवा, ठारहाणेसु बज्झंता ॥२६॥ (तव समयसरोभ्रष्टा भ्राम्यन्ति सकलास रूक्षजातिष । साररिजलमिव जीवाः स्थानस्थानेषु बध्यमानाः ॥) जिस प्रकार सारणी (नीक) का जल समस्त वृक्ष जातियों में स्थान-स्थान पर बंधा हुआ फिरता है उसी प्रकार से हे नाथ ! आपके सिद्धान्त रूप सरोवर से भ्रष्ट जीव चौरासी लाख जीव योनि रूप सकल रुक्ष जाति/ कठोर उत्पत्ति स्थानों में कर्मों के द्वारा स्थान-स्थान पर बंधे हुए भ्रमण करते हैं। (२६) सलिल (लि) व्व पवयरणे तुह, गहिए उड्ढं अहो विमुक्कम्मि । वच्चंति नाह ! कवय - रहदृघडिसंनिहा जीवा ॥३०॥ (सलिल इव प्रवचने तव गहीते ऊर्ध्वमधो विमुक्ते । व्रजन्ति नाथ ! कूपकारघट्टघटीसन्निभा जीवाः ॥) हे नाथ ! कुए के अरघट्ट की घटी के समान जीव आपके प्रवचन को जब जल के समान ग्रहण करते हैं तब वे ऊपर (स्वर्ग अथवा मोक्ष में) जाते हैं और जब उन्हें छोड़ देते हैं तब नीचे (तिर्यंच अथवा नरक में) जाते हैं । (३०) लोलाइ निति मुक्खं, अन्ने जह तिथिमा तहा न तुमं । तहवि तुह मग्गलग्गा, मग्गंति बुहा सिवसुहाई॥३१॥ (लीलया नयन्ति मोक्षमन्ये यथा तीथिकाः तथा न त्वम् । तथापि तव मार्गलग्ना, मृगयन्ते बुधज्ञः शिवसुखानि ॥) जिस प्रकार अन्य बौद्ध आदि दार्शनिक लीला पूर्वक जीवों को मोक्ष में ले जाते हैं उस प्रकार आप नहीं करते हैं, तो भी विचक्षण जन यथार्थ दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप आपके मार्ग में लगे हुए मोक्ष-सुखों को खोजते हैं। (३१) जिन भक्ति ] [ 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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