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________________ हे नाथ ! आपका ( सर्वोत्तम ) रूप अवलोकन करने वाले (जीव ) यदि हर्षित नहीं होते तो, यदि वे सर्वज्ञ न हों तो फिर वे संज्ञी होते हुए भी सचमुच संज्ञी हैं । (२१) पत्ता णिस्सामन्नं, समुन्नई जेहिं देवया श्रन्ने । तेदिति तुम्ह गुरणसंकहासु हासं गुणा मज्झ ॥ २२ ॥ ( प्राप्ता निःसामान्यां समुन्नति यैर्देवका अन्ये । ते ददते तव गुणसंकथासु हासं गुणा मम ॥ ) जिन गुणों के द्वारा अन्य देवों ने असाधारण प्रभुता प्राप्त की वे ( कल्पित ) गुरण आपके ( सद्भूत) गुणों के संकीर्तन के समक्ष मुझे हास्य उत्पन्न करते हैं । (हरि, हर आदि की प्रभुता कल्पित है, जब कि आपकी प्रभुता का आधार वास्तविक गुण हैं ।) (२२) दोसर हिस्स तुह जिरण ! निदावसरंमि भग्गपसराए । वायाइ वयरगकुसलावि, बालिसायंति मच्छरिणो ।। २३ ॥ ( दोषरहितस्य तव जिन ! निन्दाक्सरे भग्नप्रसरया । वाचा वचनकुशला प्रपि बालिशायन्ते मत्सरिणः ॥ ) हे जिनेश्वर ! वचन कहने में कुशल मत्सरी लोग भी सर्वथा दोष हीन आपकी निन्दा करने के समय भग्न प्रसार वाली वारणी से चाहे जैसा बोल कर बालक की तरह चेष्टा करते हैं । (२३) श्रणुरायपल्ल विल्ले, रइवल्लिफुरंतहासकुसुमंमि । तवताविश्रा वि न मगो, सिंगारवणे तुहल्लीणो ॥ २४ ॥ ( अनुरागपल्लववति रतिवल्लिस्फुरद्धासकुसुमे । तपस्तापितमपि न मनः शृंगारवने तव लीनम् ॥ ) अनुराग रूपी पल्लवों से युक्त और रति रूपी लता पर खिलने वाले हास्य रूपी पुष्पों से युक्त शृंगार रूपी वन में अनशन आदि तपस्या रूपी ताप से तप्त आपका मन वहाँ लगा नहीं । ( यह आश्चर्य है क्योंकि ग्रीष्म ऋतु के ताप से तप्त जन तो वन का आश्रय लेते हैं ।) (२४) जिन भक्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only [ 23 www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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