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प्रकाशकीय
प्रशान्त मूर्ति पंन्यासप्रवर श्री भद्रकरविजयजी गरिगवर्य द्वारा संकलित एवं अनुदित ज्ञान-वैराग्य एवं भक्तिरस से ओत प्रोत "जिनभक्ति' नामक पुस्तक प्राकृत भारती के 64वें पुष्प के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है।
शास्त्रकार महर्षियों का कथन है कि उपधान तप करने वाले व्यक्ति को उपधान पूर्ण करने के चिन्ह स्वरूप माल्यार्पण से पूर्व यावज्जीवन गुरु के समक्ष त्रिकाल चैत्यवन्दन और जिन-पूजा करने का अभिग्रह अवश्य अंगीकार करना चाहिये, अर्थात प्रातःकाल जब तक श्री जिन-प्रासाद में जाकर श्री जिनमूर्ति का वन्दन नहीं करें तब तक मुंह में पानी भी नहीं डालना चाहिये, मध्याह्न काल में जब तक जिन-प्रासाद में जाकर श्री जिनमूर्ति की पूजा नहीं करे तब तक भोजन नहीं करना चाहिए और सायंकाल में श्री जिन-प्रासाद में जाकर श्री जिनति के समक्ष धूप-दीप आदि से पूजा न करले तब तक नींद नहीं लेनी चाहिये।
जो व्यक्ति त्रिकाल चैत्यवन्दन का अभिग्रह न ले सकता हो उसे भी नित्य नियमित रूप से एक बार चैत्यवन्दन करने का अभिग्रह तो लेना ही चाहिये। उपधान में से निकलने के पश्चात जो व्यक्ति इतना भी नहीं करे वह उपधान में अनेक दिनों तक किये गये तप-जप आदि की उत्तम पाराधना को चमका नहीं सकता।
उपधान तप पूर्ण करके बाहर निकलने वाले व्यक्ति को जिन भक्ति की क्रिया नियमित एवं अनिवार्य रूप से करनी चाहिए और जिन-भक्ति के लिए प्रधान अावश्यकता श्री जिन-स्वरूप को पहचानने की है। श्री जिनेश्वर भगवान का स्वरूप इतना उच्च कोटि का है कि ज्यों-ज्यों उसकी हमें पहचान होती जाती है, त्यों-त्यों हमारे हृदय में उनके प्रति भक्ति के
जिन भक्ति ]
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