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जिन्होंने (शब्द, लेखन, गणित, गीत आदि) विद्याएँ एवं (कुम्भकार आदि) शिल्प बताये हैं, तथा जिन्होंने (कृषि, पशु-पालन, वाणिज्य, विवाह आदि) समस्त प्रकार का लोक-व्यवहार भी समुचित प्रकार से समझाया है, ऐसे पाप जिन प्रजा-जनों के स्वामी हुए हैं, वे प्रजाजन भी कृतार्थ हैं । (१०)
बंधुविहत्तवसुमई, वच्छरमच्छिन्नदिन्नधरणनिवहो । जह तं तह को अन्नो, निश्रमधुरं धीर ! पडिवन्नो ॥११॥ (बन्धुविभक्तवसुमतिः वत्सरमच्छिन्नदत्तधननिवहः ।
यथा त्वं तथा कोऽन्यो नियमधुरां धीर ! प्रतिपन्नः ॥) जिन्होंने (भरत आदि पुत्रों एवं सामन्तों रूपी) बन्धुओं में पृथ्वी का विभाजन कर दिया और जिन्होंने निरन्तर एक वर्ष तक धन का दान किया है, ऐसे आपने जिस प्रकार (दीक्षा के समय समस्त पापपूर्ण आचरण के त्याग की) नियमधुरा को धारण किया, उस प्रकार हे धीर ! अन्य कौन धारण कर सकता है ? (११)
सोहसि पसाहिअंसो, कज्जलकसिणाहि जयगुरु जडाहिं । उवगूढ विसज्जिरायलच्छिबाहच्छडाहिं व ॥१२॥ (शोभसे प्रसाधितांसः कज्जलकृष्णाभिर्जगद्गुरो जटाभिः ।
उपगूढविजितराजलक्ष्मीबाष्पच्छटाभिरिव ॥) हे जगद्गुरु ! राज्यकाल में आलिंगन की हुई और दीक्षा-काल में त्याग की गई राज्य-लक्ष्मी की मानो अश्रु धारा ही हो उस प्रकार की काजल के समान श्याम जटा से अलंकृत स्कधयुक्त आप सुशोभित हो रहे हैं । (१२)
उवसामिग्रा प्रणज्जा, देसेस तए पवन्नमोणेणं । अभणंत च्चिन कज्ज, परस्स साहति सप्पुरिसा ॥१३॥ (उपशमिता अनार्या देशेषु स्वया प्रपन्नमौनेन ।
अभणन्त एव कार्य परस्य साधयन्ति सत्पुरुषाः ॥) हे नाथ ! आपने (बहली, अडम्ब, इल्लायोनक आदि अनार्य देशों में) अनार्यों को मौन धारण करके शान्त किये वह सचमुच एक आश्चर्य है; (क्योंकि किसी को भी शान्त करने का उपाय वाक्-चातुर्य है, अथवा यह 20 ]
[ जिन भक्ति
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