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________________ त्वं माता त्वं पिता बन्धु-, स्त्व स्वामी त्वं च मे गुरुः । त्वमेव जगदानन्द !, जीवितं जीवितेश्वर ! ॥१२॥ हे जगदानन्द ! हे जीवितेश्वर ! ग्राप मेरी माता हैं. आप मेरे पिता हैं, आप मेरे बंधु हैं, आप मेरे स्वामी हैं, आप मेरे गुरु हैं और आप ही मेरे जीवन हैं । (१२) त्वयाऽवधीरितो नाथ !, मीनवज्जलव जिते । निराशो दैन्यमालम्ब्य, म्रियेऽहं जगतीतले ॥१३॥ हे नाथ ! आपसे तिरस्कृत बना मैं हताश होकर जल-विहीन मछली की तरह निराधार होकर पृथ्वी पर मृत्यु का ग्रास हो जाऊँगा । (१३) स्वसंवेदनसिद्ध मे, निश्चले त्वयि मानसम् । साक्षाद्भूतान्यभावस्य, यद्वा किं ते निवेद्यताम् ? ॥१४।। हे भगवान ! अापको निश्चल पाकर मेरा मन आप में लीन हो गया है, इसका मुझे व्यक्तिगत अनुभव है अथवा अन्य प्राणियों के भावों के साक्षात् ज्ञाता आपको क्या कुछ भी कहने की आवश्यकता है ? (१४) मच्चित्तं पद्मवन्नाथ !, दृष्टे भुवनभास्करे । त्वयीह विकसत्येव, विदलत्कर्मकोशकम् ॥१५॥ हे नाथ ! तीन भुवन में सूर्य के समान आपको देख कर कमल को तरह मेरा चित्त यहां कर्म-कोश को भेद कर अवश्य विकसित होता है । (१५) अनन्तजन्तुसन्तान - व्यापाराक्षणिकस्य ते । ममोपरि जगन्नाथ !, न जाने कीदृशी दया! ॥१६॥ हे जगन्नाथ ! अनन्त प्राणियों के समूह के व्यापार के सम्बन्ध में आप व्याप्त प्रभु की मुझ पर कैसी दया है, यह मैं नहीं जानता । (१६) समुन्नते जगन्नाथ !, त्वयि सद्धर्मनीरदे । नृत्यत्येष मयूरा भो, मद्दोर्दण्ड शिखण्डिकः ।।१७॥ हे जगन्नाथ ! सद्धर्म रूपी बादलों के घिर आने से मेरे भुज-दण्ड रूपी मयूर नृत्य करने लगते हैं। (१७) तदस्य किमियं भक्तिः ? किमुन्मादोऽयमीदशः ? दोयतां वचने नाथ ! , कृपया मे निवेद्यताम् ॥१८॥ जिन भक्ति ] [ 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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