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न तिर्यग् ज्वलत्येव यत् ज्वालजिह्वो,
यदूर्ध्वं न वाति प्रचण्डो नभस्वान् । न जाति यद्धर्मराजप्रतापः,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥२१॥ अर्थ-जिन भगवान् के धर्मराज का प्रताप ऐसा जागृत है कि जिससे अग्नि तिरछी प्रज्वलित नहीं होती और प्रचंड हवा ऊर्ध्व गति से नहीं चलती वे एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२१) इमौ पुष्पदन्तौ जगत्यत्र विश्वो
पकाराय दिष्ट्योदयेते वहन्तौ । उरीकृत्य यत्तर्यलोकोत्तमाज्ञां,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥२२॥ अर्थ-जिन लोकोत्तम प्रभु की आज्ञा को अंगीकार करके चलने वाले सूर्य एवं चन्द्रमा इस विश्व के उपकारार्थ सद्भाग्य से उदय होते हैं, वे एक ही परमात्मा मेरी गति हों। (२२) प्रवत्येव पातालजम्बालपातात,
विधायापि सर्वज्ञलक्ष्मीनिवासान् । यदाज्ञाविधित्साश्रितानंगभाजः,
स एकः परात्मा गतिर्मे जिनेन्द्रः ॥२३॥ अर्थ-पालन की जाने की इच्छुक जिन भगवान् की आज्ञा भव्य प्राणियों को सर्वज्ञ लक्ष्मी के निवास रूप देहहीन बना कर अथवा जिन भगवान की आज्ञा उसे पालन करने के इच्छुक प्राणियों को सर्वज्ञ लक्ष्मी का निवास रूप बना कर नरक-निगोद आदि के कीचड़ में गिरने से बचाती है, वे एक ही जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२३) सुपर्वद्रुचिन्तामणिकामधेनु
प्रभावा नृणां नैव दूरे भवन्ति । चतुर्थे यदुत्थे शिवे भक्तिभाजां,
स एकः परात्मा गतिमें जिनेद्रः ॥२४॥ अर्थ-जिन भगवान् से प्रकट चौथे लोकोत्तर (मुक्ति रूपी भाव) कल्याण के सम्बन्ध में भक्ति-युक्त भव्य प्राणियों के लिये कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामधेनु प्रभाव भी दूर नहीं है, वे एक ही जिनेन्द्र भगवान् मेरी गति हों। (२४)
जिन भक्ति ]
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