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________________ प्रश्न-हे भगवन् ! स्तोत्र-स्तुति रूपी मंगल के द्वारा जीव क्या उपार्जन करता है ? उत्तर-स्तोत्र-स्तुति रूपी मंगल के द्वारा जीव ज्ञान. दर्शन, चारित्र और बोधि का लाभ प्राप्त करता है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और बोधि-लाभ को प्राप्त किया हा जीव अंतक्रिया करके उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है। श्री जिन-गुण-स्तवन की महिमा अद्भुत है। श्री जिनेश्वर देवों के अद्भुत गुणों का वर्णन करने वाले शब्द मंत्राक्षर स्वरूप हो जाते हैं। उनसे महान भय भी नष्ट हो जाते हैं । शब्द शास्त्र के अचूक नियमानुसार प्रयुक्त शब्दों के द्वारा रचित श्री जिन-गण-महिमा-गभित स्तोत्रों से चमत्कारपूर्ण वृत्तान्त बनने के अनेक उदाहरण शास्त्रों में वर्णित दृष्टिगोचर होते हैं। उस प्रकार के अनेक स्तोत्र आज भी विद्यमान हैं कि जिनके द्वारा प्राचीन काल में अपूर्व शासन-प्रभावना एवं चमत्कार हो चुके हैं। स्थिर अंतःकरण वाले व्यक्ति उन स्तोत्रों का आज भी जाप करते हैं, जिससे पाप का प्रणाश होने के साथ इष्ट कार्यों की अविलम्ब सिद्धि होती है। . श्री जिन-गुण-स्तवन की महिमा प्रदर्शित करते हुए श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी ने एक स्थान पर कहा है कि --- "श्री जिन-गुण का स्तवन,-जाप अथवा पाठ अथवा श्रवण, मनन अथवा निदिध्यासन अष्ट महासिद्धियों को प्रदान करने वाला है, समस्त पापों को रोकने वाला है, समस्त पुण्य का कारण है, समस्त दोषों का नाशक है, समस्त गुणों का दाता है, महा प्रभावशाली है, भवान्तर-कृत अपार पुण्य से प्राप्त है तथा अनेक सम्यग-दृष्टि, भद्रिक भाव वालों, उत्तम कोटि के देवों एवं मनुष्यों आदि से सेवित है। चराचर जीव लोक में ऐसी कोई उत्तम वस्तु नहीं है जो श्री जिन-गुण-स्तवन आदि के प्रभाव से भव्य जीवों के हाथ में नहीं आये।" "श्री जिन-गुण स्तवन के प्रताप से चारों निकायों के देवता प्रसन्न होते हैं; पृथ्वी, अप, तेज, वायु और आकाश आदि भूत (तत्त्व) अनुकूल होते हैं; साधु पुरुष उत्तम मन से अनुग्रह करने में तत्पर होते हैं; खल पुरुषों का क्षय होता है; जलचर, थलचर एवं गगन-चर क्रूर जन्तु मैत्रीमय हो जाते हैं और अधम वस्तुओं का स्वभाव उत्तम हो जाता है। इससे मनोहर धर्म, अर्थ और काम गुण प्राप्त होते हैं; समस्त ऐहिक सम्पत्ति शुद्ध, 120 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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