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सर्वेषामहदादीनां, यो योऽहत्त्वादिको गुणः ।
अनुमोदयामि तं तं, सर्वं तेषां महात्मनाम् ॥४॥ अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधुओं में जो जो आर्हन्त्य, सिद्धत्व, पंचाचार के पालन में प्रवोणता, सूत्रों को उपदेशकता और रत्नत्रयी की साधना आदि जो जो गुण हैं उन समस्त गुणों को मैं अनुमोदना करता हूँ । (४)
त्वां त्वत्फल भूतान् सिद्धां -स्त्वच्छासनरतान्मुनीन् ।
स्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः ॥५॥ हे भगवन् ! भाव अरिहन्त आपकी, आपके फलभूत (अरिहन्तों का फल सिद्ध है) समस्त कर्मों से मुक्त एवं लोक के अग्रभाग पर स्थित सिद्ध भगवानों की, आपके शासन में अनुरक्त मुनिवरों की और आपके शासन की शरण मैंने भावपूर्वक ग्रहण की है । (५)
क्षमयामि सर्वान्सत्त्वान्सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि ।
मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे ॥६॥ हे नाथ ! समस्त प्राणियों से मैं क्षमा याचना करता हूँ, समस्त प्राणी मझे क्षमा करें, मेरे प्रति कलुषता को त्याग कर मझे क्षमा प्रदान करें। केवल आपके ही शरणागत मुझ में उन सबके प्रति मैत्री, मित्रभाव, हितबुद्धि . हो। (६)
एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्, न चाहमपि कस्यचित् ।
त्वदङ घ्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥ हे नाथ ! मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ, फिर भी आपके चरणों की शरण ग्रहण किये हुए मझ में तनिक भी दीनता नहीं है। (७)
यावन्नाप्नोमि पदवी, परां त्वदनुभावजाम् ।
तावन्मयि शरण्यत्वं, मा मुञ्चः शरणं श्रिते ॥८॥ हे विश्व-वत्सल ! आपके प्रभाव से प्राप्त होने वाली उत्कृष्ट पदवी–मुक्तिपद मुझे प्राप्त न हो, तब तक शरणागत मेरे, आप पालक बने रहें, पालकता का त्याग नहीं करें। (८)
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